Atmadharma magazine - Ank 164
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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संसारथी संतृप्त जीवोने शांतिनी झांखी करावतुं अजोड आध्यात्मिक–मासिक
वर्ष १४ मुं
अंक ८ मो
जेठ
वी सं. २४८३
१६४
चिदानंद तत्त्वनुं भान करीने पोताना आत्मामां जेणे ‘ज्ञान–दीवडा’ प्रगटाव्या ने अज्ञान
अंधकारनो नाश कर्यो ते जीव ‘धर्म दीवाकर’ छे.....परमात्मसुखनो अभिलाषी एवो ते
‘परमपुरुषार्थ परायण भव्य जीव’ चिदानंदस्वभावना आश्रये निश्चयरत्नत्रयने भावे छे.....
जीवे मिथ्यात्वादि भावो पूर्वे अनादिकाळथी भाव्या छे, पण चिदानंदस्वभावनो आश्रय करीने
सम्यक्त्वादि भावोने पूर्वे कदी भाव्या नथी. अति आसन्नभव्य मुमुक्षु जीव ते मिथ्यात्वादि भावोने
छोडीने, पोताना परमात्मतत्त्वना आश्रये सम्यग्दर्शनादि भावोरूपे परिणमे छे ए ज ते धर्मात्मानुं
प्रतिक्रमण छे. चिदानंदतत्त्वना आश्रये सम्यक्त्वादिनी भावना भवभ्रमणनो नाश करनारी छे.
आवी अपूर्व भावनावाळो जीव अति आसन्नभव्य छे, ते अल्पकाळमां ज मुक्ति पामे छे.
(फागण वद दसमना पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी)
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)