Atmadharma magazine - Ank 164
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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वखाण सांभळे त्यां पोरस चडे, पण अहीं “सर्वज्ञ भगवंतो जेवो तारो आत्मा छे” एम संतो संभळावे छे ते
सांभळता जीवने पोरस नथी चडतो; आत्मानो जेने प्रेम होय तेने तो तेनी वात सांभळतां अंतरथी आत्मा उछळी
जाय....ने एवो पोरस करे के तेनो अनुभव करे ज. भाई! आ धर्म कथा छे; तारा आत्माने धर्मनी एटले के सुखनी
प्राप्ति केम थाय–तेनी आ वात छे. भाई! तारो आनंद बहारमां नथी, स्त्रीमां नथी, पैसामां नथी, शरीरमां नथी,
मनमां नथी, ने अंदरनी शुभ–अशुभ वृत्तिनुं उत्थान थाय तेमां पण तारो आनंद नथी. तारो आनंद तो तारा
एकत्वस्वरूपमां ज छे. तारा आनंदनी वार्ता तो सांभळ! तारा आत्मानो दुःखथी उद्धार करे एवा धर्मनी आ वात
छे, तेनो प्रेम लावीने एक वार सांभळ तो खरो. अंतरमां ज आनंद छे पण तेने भूलीने अज्ञानी जीवो बहारमां
भटके छे; पण आत्मामां आनंद छे तेने शोधतो नथी. २०० रूा. नो दागीनो खोवाणो होय तो केवी शोधाशोध करी
मूके छे, पण आ आखो चैतन्य भगवान अनादिनो भूलाई गयो छे तेने शोधवानी–समजवानी दरकार पण करतो
नथी. वहालो दीकरो रात्रे घरे न आवे तो ते कयां खोवाई गयो हशे–एनी चिंतामां चेन पडतुं नथी, ने उंघ पण
आवती नथी. तो जेने आत्मा वहालो होय तेने तेनी प्राप्ति वगर कयांय चेन पडे नहि. अहो! मारा चैतन्यनो
अपार महिमा सर्वज्ञदेवे गायो छे, तेने हुं केम पामुं?–एम अंतरमां तेनी शोध कर्या ज करे. चैतन्यपदनो अपार
महिमा सर्वज्ञ भगवाने गायो छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के
जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.....
अहो! आ चैतन्यपदनो अपार महिमा वाणीथी वर्णवाय एवो नथी, ए तो ज्ञानथी ज अनुभवमां आवे
छे.–आवा पोताना चैतन्यपदने ओळखवा माटे तेने घणो रस लागवो जोईए. भाई! एक वार तुं आत्मानो
रसीलो था. संतो चैतन्यना गाणां गाई गाईने तेनो महिमा प्रसिद्ध करे छे पण मूढ–पामर जीवोने संसारनी तीव्र
ममता आडे आत्मानो महिमा आवतो नथी. जुओ, बे भमरा हता. एक भमरो सुगंधी फूलनी सुगंध लेतो हतो;
तेने एम थयुं के बीजा भमराने पण हुं आवी सुगंध बतावुं.–आम विचारी बीजा भमराने ते सुगंधी फूल उपर लई
गयो, ने पूछयुंः केम भमरा! केवी सुगंध आवे छे?–ते भमराए कह्युंः भाई, मने तो कांई सुगंध नथी आवती,
पहेला जेवी ज दुर्गंध आवे छे. त्यारे पहेला भमराए विचार्युं के आनुं शुं कारण? तपास करतां तेने खबर पडी के
एना नाकमां दुर्गंधनी बे गोळी भरीने ते बेठो छे! नाकमां दुर्गंधनी गोळी भरी होय पछी सुगंधनो स्वाद क्यांथी
आवे? एटले तेणे पेला भमराने कह्युं केः तारा नाकमां आ दुर्गंधनी गोळी लईने बेठो छो ते काढी नांख, अने पछी
आ फूलनो स्वाद ले एटले तने सुगंध आवशे. तेम संत धर्मात्माओ बाह्य विषयोनी रुचिरूप दुर्गंध छोडीने
चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद ल्ये छे, ने बीजा जीवोने पण ते बतावे छे के अरे जीवो! तमारा आत्मामां
अतीन्द्रिय आनंद भर्यो छे, तेनो स्वाद ल्यो. त्यारे विषयोनी तीव्र लोलुपतावाळो, बीजा भमरा जेवो मूढ जीव कहे
छे के–अमने तो आत्मामां कांई सुख देखातुं नथी, अमने तो बाह्य विषयोमां सुख लागे छे. तेने ज्ञानी कहे छे के–
अरे भाई! एक वार बाह्य विषयोनी प्रीति छोड ने आत्माना स्वभावनो प्रेम कर. आत्मा करतां बाह्य विषयोनो
प्रेम वधी जाय–पछी आत्माना आनंदनो स्वाद क्यांथी आवे? माटे एक वार बहारनो प्रेम छोडीने चैतन्य
स्वभावनो प्रेम करीने तेमां तारा आनंदने शोध, तो जरूर तने तारा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवशे.
जेम तळावमां ऊतरवा माटे तेनो आरो शोधे छे के “कयांय आनो आरो?”–तेम जन्म–मरणनो जेने थाक
लाग्यो होय ते तेनाथी पार उतरवानो आरो शोधे के–‘कोई रीते आ जन्म–मरणनो आरो आवे!’ एक खेडूत पण
पूछतो हतो के ‘मा’ राज! आ दुःखनो कयांय आरोवारो?’ आम जेने जन्म–मरणनो त्रास थाय ने तेनाथी
छूटवानी धगश जागे ते वारंवार सत्समागम करीने तेनो उपाय शोधे. आ रीते सत्समागमथी वारंवार परिचय
करीने आत्मस्वभावनी समजण करवी, ते जन्म–मरणथी छूटवानो उपाय छे.
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आत्मधर्मः १६४