हे जीव! चैतन्यतत्त्वनो प्रेम कर.
[पोलारपुरमां पू. गुरुदेवनुं प्रवचनः कारतक वद चोथ]
आत्मानो धर्म शुं छे–तेनी आ वात छे.
भगवान सर्वज्ञदेव ज्यारे पोताना परिपूर्ण सर्वज्ञ स्वभावने पाम्या, अने जगतना पदार्थोने जाण्या, त्यारे
तेमनी दिव्य वाणीमां चैतन्य तत्त्वनो जे उपदेश नीकळ्यो तेनुं आ वर्णन छे. आत्मा चैतन्यस्वरूप छे तेने पोताथी
एकत्व ने परथी पृथक्त्व छे. आवा आत्मस्वरूपनुं श्रवण मळवुं दुर्लभ छे.
आ संसारमां अनादि काळथी परिभ्रमण करता जीवोने मनुष्यपणुं मळवुं बहु दुर्लभ छे, ने मनुष्यपणामां
पण चैतन्यतत्त्वनी वातनुं श्रवण बहु दुर्लभ छे. नरकना अवतार अनंतवार जीवे कर्या, स्वर्गना अवतार तेनाथी
पण अनंतगुणा कर्या; ते स्वर्गना अवतार करता पण मनुष्यपणुं जगतने दुर्लभ छे. छतां मनुष्यपणुं पण अनंतवार
जीव पामी चूक्यो छे; परंतु मनुष्यपणामांय आत्मानी साची ओळखाण बहु दुर्लभ छे. जीवोने “बोधि” बहु दुर्लभ
छे तेथी शास्त्रोए “बोधिदुर्लभ” भावना वर्णवी छे. स्वर्गना देवो पण एवी भावना करे छे के मनुष्य अवतार
पामीने मुनि थईने क्यारे आत्माना आनंदमां लीन थईए ने क्यारे मुक्ति पामीए! आत्माना आनंदनी प्राप्ति
थाय तेनुं नाम मुक्ति छे.
अहीं आचार्यदेव कहे छे के–हे जीव! तारो आत्मा आ देहादिथी भिन्न ज्ञानस्वरूप छे तेने तुं जाण–
चित्तत्वं यत्प्रतिप्राणी देह एव व्यवस्थितम् ।
तमच्छन्ना न जानन्ति भ्रमन्ति च बहिर्बहिः ।। ४।।
आजे विहारनो चोथो दिवस छे ने आ चोथो श्लोक वंचाय छे! तेमां कहे छे के अहो, आ चैतन्य स्वरूप
आत्मा दरेक प्राणीना देहमां स्थित छे, परंतु अज्ञानथी अंध थयेला लोको तेने जाणता नथी ने बहारमां भमे छे.
जुओ, जगतमां आ चैतन्य हीरो ज उत्तममां उत्तम वस्तु छे. लोको बहारमां सुख माने छे पण तेमां सुख नथी.
एक पंडित करोडोनी किंमतनो कोहीनूर हीरो जोवा गयो. कोईए तेने पूछयुंः केम पंडितजी! केवो हीरो? त्यारे पंडितजी ए
जवाब आप्यो के भाई! हीरो किंमती तो खरो, पण जो आ आंख न होय तो ते हीराने कोण देखे? हीराने तो आंख
देखे छे, तेथी खरी किंमत तो आंखनी छे.–ए तो द्रष्टांत छे. तेम आ आत्मा जगतनो जाणनार चैतन्य हीरो छे; जो ते न
होय तो जगतना अस्तित्वने कोण जाणे? माटे जगतमां सौथी उत्तम तो आ चैतन्यरत्न ज छे.
आ शरीरनी एक आंख करोडो रूा. आपतां पण नथी मलती; परंतु जो अंदर चैतन्य न होय तो आ आंख
वगेरे पण शुं कामनां? माटे चैतन्य तत्त्व ज जगतमां उत्तम छे.
जुओ, आ संतो चैतन्य तत्त्वनां वखाण करे छे. शरीरना के कुटुंबना वखाण करे त्यां जीवो प्रेमथी ते सांभळे छे,
पण चैतन्य तत्त्वनो प्रेम तेणे कदी प्रगट कर्यो नथी. जगतने बहारना विषयोनो रस छे पण अंतरना चैतन्यतत्त्वनो
प्रेम नथी. जो आत्मानो प्रेम करे तो तेमां अतीन्द्रिय आनंद भर्यो छे तेनो स्वाद आवे. “राजरत्न” नुं बिरुद मळे त्यां
तो राजी–राजी थई जाय, पण आ “चैतन्यरत्न” नुं बिरुद भगवाने आप्युं छे तेने जीव ओळखतो नथी. सात पेढीनां
जेठः २४८३
ः पः