Atmadharma magazine - Ank 165
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957).

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: ૧૮ : આત્મધર્મ : અષાડ : ૨૪૮૩ :
से हृदयोदधि में दर्शनोत्कंठा अत्यधिक व्यग्र हो रही थी। आज आपके शुभ
साक्षात्कार से हम सब भक्ति–भाव के परमानन्द से ओतप्रोत हो श्रद्धा–सुमन अर्पित
करते हैं।
परमात्मतत्त्ववेत्ता!
आज के इस वैज्ञानिक युगमें समस्त जगत भौतिक सुख की भ्रान्त धारणामें
ही अपना परमकल्याण अनुभव करता द्रष्टिगत होता है। किन्तु आपने इससे परे
भौतिकवादियों को सचेत कर दिया है कि ये समस्त सुख क्षणभंगुर है एवं
मिथ्यात्व से परिपूर्ण हैं, शाश्वत शांति का शिव–मग अध्यात्म–दर्शन में है। आपकी
अध्यात्म संबंधी परम चमत्कारी शैली के फलस्वरूप अनेक मुमुक्षु मानव
मोहान्धकार से मुक्त हो गये हैं; वे सब आपके पथानुयायी होकर ज्ञानसाधना में
संलग्न हैं।
सत्पथ–प्रदर्शक सन्त!
परिग्रह–संतप्त प्राणी आपकी सत्प्रेरणा से सत्पथ की ओर अग्रसर होते हुए
सुखद शान्ति का अनुभव प्राप्त कर रहे है। आपने अपनी मंगलमयी वाणीद्वारा
आकुल संसार को मोह ममतासे मुक्त होने की सर्वदा सत्प्रेरणा प्रदान की है।
आपने अपने समय को अधिकतर रचनात्मक कार्योमें ही संलग्न किया है, जिसके
फलस्वरूप आप के तत्त्वावधान में सम्यक्ग्रंथों का प्रकाशन तथा अनेक मन्दिर–
निर्माण हुए हैं। आपने अपने पीयूष प्रवाहित प्रवचनों से सहस्त्रों नवीन बन्धुओं को
जैन धर्ममें दीक्षित किया है।
अध्यात्मयोगिन्!
आपने विश्व–वैभव व इन्द्रियजन्य सुखों को तिलांजलि देकर बालब्रह्मचर्यव्रत
का पालन कर उज्जवल आदर्श उपस्थित किया है। आपने अनेक अध्यात्मग्रंथो के
पारायण एवं दोहन से अनेक ज्ञानपिपासु मानवों को परितृप्त किया है। आप की
छत्रछाया में अनेक जिज्ञासु अपने शिवमार्ग की ओर अग्रसर है।
सम्यग्द्रष्टि!
आज के इस शुभावसर पर हम सब हृदय से अभिनन्दन करते हुए श्री १००८
भगवान जिनेन्द्र से प्रार्थना करते हैं कि आप चिरायु हो एवं आप के आत्मज्ञान का
शुभ सन्देश संसार के कौने २ में सूर्य की प्रखर रश्मियों की भांति आलोकित
होकर अज्ञानतम को नष्ट करें। यही हमारी हार्दिक कामना है।
दिनांक २० अप्रेल, १९५७ विनीत–
मदनगंज–किसनगढ़ कुन्थुसागर दिगंबर जैन हाईस्कुल