: अषाड : २४८३ : आत्मधर्म : १७ :
आवा स्वभावने ओळखे तेने तेवुं परिणमन थया वगर रहे नहि.
ज्ञान–आनंद स्वभावमां एकता (–तद्रूपता), अने रागादिथी भिन्नता (–अतद्रूपता), –आम परस्पर
विरुद्धधर्मो आत्मामां छे. जुओ, आ आत्मानी विरुद्धधर्मत्व शक्ति! आ विरुद्धधर्मत्व शक्ति पण एवी छे के जे
आत्माने परथी भिन्न परिणमावीने अने स्वभावमां एकता करावीने आत्माने लाभरूप थाय.
विरुद्धधर्मत्वशक्ति कांई विरोध ऊपजावनारी नथी, परंतु ते तो रागादि विरोधी भावोनो नाश करीने अविरुद्ध
शांतिनी आपनार छे.
आत्मानी अनंत शक्तिओमां एवी तो कोई शक्ति नथी के जेनी साथेना अभेद परिणमनथी आत्माने
अहित थाय! आत्माना गुण साथे अभेद परिणमन थतां लाभ ज थाय छे. अने तेने ज आत्मा कह्यो छे, वच्चे
विकारनुं परिणमन थाय ते गुण साथे अभेद नथी एटले ते आत्मा नथी, आत्माना गुणोनुं ते खरु परिणमन
नथी गुण साथे एकताथी गुणनी (एटले के निर्मळ पर्यायनी) ज उत्पत्ति थाय. गुण सामे जोतां लाभ ज थाय
अने गुण सामे न जुए तेने विकार थाय, ते विकार कांई गुणना कारणे नथी, ते तो ते पर्यायनो ज अपराध
छे. आ रीते निर्दोष गुणोथी भरेला आत्मानुं भान करे तो मुक्ति थाय. समकितीने द्रष्टि अपेक्षाए तो मुक्त ज
कह्यो छे.
प्रश्न:– नरकमां पण मुक्ति?
उत्तर:– हा; नरकमां पण आवा शुद्धस्वभावनी द्रष्टिवाळो समकिती द्रष्टि अपेक्षाए मुक्त ज छे. केम के
नरक ने नरक तरफनुं जराक वेदन ते बंनेथी पोताना स्वभावने अतत्पणे ते अनुभवे छे, माटे स्वभावद्रष्टिनी
अपेक्षाए तो समकिती सर्वत्र मुक्त ज छे; अने ते द्रष्टिना बळे एकाद भवमां ज ते साक्षात् मुक्त
सिद्धपरमात्मा थई जशे.
अहो! पहेलांं आत्माना आवा स्वभावनो प्रेम आववो जोईए... एनी वात सांभळतां पण उत्साह
आववो जोईए... भाई, तने जे प्रेमनी वात छे ते ज कहेवाय छे, प्रेमपूर्वक तुं श्रवण कर! बहारना पदार्थो उपर
प्रेम करी करीने तुं अनंतकाळथी दुःखी थयो, हवे तारा आत्माने प्रेम कर; जगतना पदार्थो करतां तारा आत्माने
ज सौथी वहालो कर, ‘जगत ईष्ट नहीं आत्मथी,’ –तो तारुं अपूर्व कल्याण थाय.
–२८ मी विरुद्धधर्मत्वशक्तिनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं.
कुन्थुसागर दिगंबर जैन विद्यालय – प्रबन्धसमिति, अध्यापकगण व
छात्रसंघ की अोरसे परमश्रद्धेय, अात्मतत्त्वेत्ता, संतिशरोमिण,
श्रीमन्मानीय पू० श्री कानजीस्वामीके पुनीत करकमलोंमें
सादर समर्पित
सम्मान – पत्र
परम श्रद्धेय!
चिर प्रतीक्षाके पश्चात् आपका पदार्पण मदनगंज किशनगढ़में हुआ। आप
सदश भव्यात्मन् संतप्रवर के दर्शन कर हम सब अपने आपको अत्यधिक कृतकृत्य
एवं गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। जबसे आपका शुभागमन–संदेश हम लोगों को
प्राप्त हुआ; तभी