निमित्त कांईपण करे एम माने छे तेओ वस्तुनी तत्–अतत्शक्तिने जाणता नथी, अनेकान्तमय वस्तुस्वरूपने
जाणता नथी, तेथी तेओ मिथ्याद्रष्टि छे.
जराक झेर पड्युं होय तो लोको ते खाता नथी, अरे! झेर न होय पण ‘आमां झेर पड्युं हशे’ एवी शंका पडे
तोय ते दूधपाक खाता नथी; तो अहीं धर्ममां साचा देव–गुरु–शास्त्र ने कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र ते बंनेने सरखा
मानीने आदरवा ते तो अमृत ने झेरने भेगा करवा जेवुं छे. अने साचा देवगुरुशास्त्रने मानवा छतां जो पोते
पोताना ज्ञानमां सत्यनो निर्णय न करे तो सत्यनो लाभ थाय नहि, माटे सत्–असत् नो पोताना ज्ञानमां
विवेक करवो जोईए. पैसा वगेरे तो बुद्धि विना पुण्यथी मळी जाय, परंतु धर्म विवेकबुद्धि वगर थतो नथी.
पर–वस्तु सुख–दुःखनुं के लाभ–नुकसाननुं कारण नथी; माटे भाई! ज्यां तारुं रूप नथी तेनी सामे न जो, जेनी
साथे तारे तद्रूपता छे एवा तारा स्वरूपमां जो. तारा आनंदस्वरूपमां तद्रूपता थतां तने तारा आनंदनो
अनुभव थशे. ए सिवाय बहारमां कल्पनाना घोडा दोडावीने त्यां सुख–दुःख माने ते तो भ्रमणा छे. अरे भाई!
क्यां नात! क्यां कुटुंब! क्यां वाडो! क्यां संप्रदाय! क्यां पैसा ने क्यां शरीर! –ए तो बधुंय आत्माथी बहार
छे, तुं ते बधायथी जुदो छो, तारे ते बधानी साथे अतत्पणुं छे, ने तारा ज्ञान–आनंद वगेरे अनंतधर्मो साथे
तत्पणुं छे. आत्मानुं जे स्वरूप–पोतानुं रूप–छे ते स्वरूपने न समजतां ऊंधी श्रद्धाथी परने पोतानुं माने छे ते
मोह अनंत संसारनुं कारण छे; माटे हे जीव! आम बहारमां तारापणुं न मानतां, अंतरमां तारा आत्माने जो.
–ते मोक्षनुं कारण छे.
छे, आ रीते पर्यायमां निर्मळ परिणमन थाय तेने ज शक्तिनी यथार्थ प्रतीति छे. एकला विभावमां ज तद्रूपपणे
जेनी पर्याय परिणमे छे ते तो राग साथे एकता बुद्धिवाळो मिथ्याद्रष्टि छे, तेने आत्मानी शक्तिनी प्रतीत नथी;
‘रागथी ने परथी अतद्रूप’ एवा स्वभावने तेणे खरेखर जाण्यो ज नथी.
छे, ने ते विरुद्धधर्मो तो आत्मामां त्रिकाळ छे. राग ते आत्माना स्वभावथी विरुद्ध छे ते अपेक्षाए तनेय
विरुद्धधर्म कहेवाय, परंतु अहीं जे विरुद्धधर्मो कह्या छे तेमां ते न आवे. आ विरुद्धधर्मपणुं तो आत्मानो
स्वभाव छे.
पण रागथी भिन्नतारूपे ने आनंदमां एकतारूपे परिणमे एवो आत्मानो स्वभाव छे. –जे पोताना