Atmadharma magazine - Ank 166
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 2 of 25

background image
संसारथी संतृप्त जीवोने शांतिनी झांखी करावतुं अजोड आध्यात्मिक–मासिक
वर्ष १४ मुं
अंक १० मो
श्रावण
वी सं. २४८३
१६६
झ ग झ ग तो सू र ज
ज्यां निःशंकता अने निर्भयताथी झगझगतो सम्यक्त्वरूपी सूरज ऊग्यो त्यां ते सूरजनो
प्रताप आठे कर्मोने बाळीने भस्म करी नांखे छे. समकिती अल्पकाळमां ज सर्व कर्मनो क्षय करीने
परम सिद्धपदने पामे छे, ते तेना सम्यग्दर्शननो प्रताप छे.
सम्यग्दर्शन शुं संयोगना अवलंबने थयुं छे के संयोग तेनो नाश करे? नहि; सम्यग्दर्शन
तो स्वभावना अवलंबने थयुं छे, तेथी ज्ञानस्वभावना अवलंबने धर्मी निःशंकपणे वर्ते छे,
बाह्यसंयोगना भयथी ते कदी निजस्वरूपमां शंकित थता नथी.
–हवे पछी प्रसिद्ध थनार एक लेखमांथी
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र)