‘आत्माने जाण्यो पण आनंद न आव्यो अथवा अनंत भवनी शंका न मटी’–एम कोई कहे तो तेणे
आनंद साथे आत्माने तद्रूप मान्यो ज नथी पण आनंदथी जुदो मान्यो छे, एटले आत्माने जाण्यो ज नथी;
भवस्वभाव वगरना मुक्तस्वरूप आत्माने तेणे जाण्यो ज नथी. अनंतगुणो साथे तद्रूप एवा आत्माने जाणतां
तेना अनंतगुणोमां तद्रूप एटले के जेवो स्वभाव छे तेवा स्वभावरूप शुद्ध परिणमन थाय छे, आनंदनुं वेदन थाय
छे ने भवनी शंका टळी जाय छे. आवा साधकने अल्प विकार रहे तेनी मुख्यता नहि होवाथी (–तेमां तद्रूपता नहि
होवाथी) ते अभाव समान ज छे.
आत्मानी तद्रूप परिणमनरूप शक्तिने जाणवा छतां पर्यायमां एकला विकाररूपज परिणमन छे एम जे
माने तेणे खरेखर स्वभाव साथे तद्रूप आत्माने जाण्यो ज नथी, तेणे तो आत्माने विकार साथे ज तद्रूप मान्यो
छे, आत्माना गुणोनुं विकारथी अतद्रूपपणुं तेणे जाण्यो नथी. जो खरेखर जाणे तो गुणना परिणमनमां पण
विकारथी अतद्रूपता थईने स्वभावमां तद्रूपता थया विना रहे नहि, केम के एवो ज आत्मानो स्वभाव छे.
आत्मामां ज्ञान–आनंद–श्रद्धा वगेरे अनंत गुणो छे, ते अनंतगुणो साथे तद्रूप थईने परिणमे एवो आत्मानो
स्वभाव छे; ज्ञान तद्रूप परिणमे ने आनंद वगेरे न परिणमे– एम न बने. अभेद परिणमनमां बधा गुणोनो अंश
सम्यक् पणे परिणमे छे–एवो आत्मस्वभाव छे.
– २९ मी तत्त्वशक्ति अने ३० मी अतत्त्वशक्तिनुं वर्णन अहीं पुरुं थयुं.
अंतरमां चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदने चूकीने बाह्य
ईन्द्रिय विषयोमां मूर्छाई गयेला बहिरात्माओ
निरंतर दुःखी छे.
अने
मारुं सुख मारा आत्मामां ज छे, बाह्य ईन्द्रियविषयोमां
मारुं सुख नथी–एवी अंर्तप्रतीति करीने,
धर्मात्मा अंतर्मुख थईने आत्माना अतीन्द्रियसुखनो
स्वाद ल्ये छे..........ते निरंतर सुखी छे.
निज चैतन्य विषयने चूकीने बाह्य विषयोमां सुखदुःखनी बुद्धिथी
अज्ञानी जीवो दिनरात बळी रह्या छे.
अरे जीवो! परम आनंदथी भरेला तमारा आत्माने संभाळो ने
आत्माना शांत रसमां मग्न थाओ.
श्रावणः २४८३ ः १पः