Atmadharma magazine - Ank 166
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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भळ्‌यो, ते साधक थयो, ने भगवाननो उपदेश तेणे ज खरेखर जाण्यो.
लोको पूछे छे के शुं करवुं?
जुओ, आ शुं करवुं ते कहेवाय छे. “लक्ष थवाने तेहनो......” तारुं शुद्धचैतन्यपद सर्वज्ञस्वभावथी भरेल छे
तेनुं तुं लक्ष कर. श्रवण–वांचन–विचार–मनन ते बधायमां आ शुद्धचैतन्यपदने लक्षमां राख. क्यां लक्ष करवा जेवुं
छे ने क्यांथी लक्ष ऊठाडवा जेवुं छे ते समज. बहारमां तारुं पद नथी, बहारमां लक्ष करीने अत्यार सुधी रखडयो
माटे त्यांथी लक्ष उठाड अने अंतरमां तारुं चैतन्यपद सर्वज्ञसमान छे–तेमां लक्ष कर. अंतर्मुख लक्ष कर्ये ज कल्याण छे,
माये ते ज करवानुं छे.
जुओ, आ सीधी–सादी वात छे.
तुं छो के नहि?–के हा.
पर छे के नहिं?–हा.
तुं अने पर जुदा छो के एक?–जुदा.
जुदां छे तेनां कार्य जुदा होय के एक? जुदा.
–ए रीते जुदानां कार्यो जुदां छे, माटे जुदा पदार्थो उपरथी द्रष्टि छोड! तेनुं हुं कांई करुं ए मान्यता छोड. ने
हवे तारामां जो.
तारामां विकार थाय छे ते कायम रहेनार छे के क्षणिक छे?
–विकार तो क्षणिक छे?
अने तारो स्वभाव कायम रहेनार छे के क्षणिक छे?
–आत्मनो स्वभाव तो कायम रहेनार छे.
बस! क्षणिक विकार जेटलो आत्मा नथी, आत्मा तो कायम टकनार ज्ञानादि अनंत गुणनो भंडार छे; ते
अनंत गुणरूप स्वभावने जो. ते स्वभावमां एकाकारता कर ने विकार साथेनी एकता छोड.–आ ज धर्म अने हित
छे. आत्माने परथी भिन्न जाणीने स्वभावमां एकतारूप परिणमन करे ते धर्मी–अंतरात्मा छे, अने जे पर साथे
एकता मानीने विकारमां एकतारूप परिणमन करे ते अधर्मी–बहिरात्मा छे.
अंतर स्वरूप ने अवलोकतां विकारनी उत्पत्ति थती नथी, केमके स्वभावमां विकार नथी, विकार साथे
स्वभावनी एकरूपता नथी. बाह्य द्रष्टिथी संसार उत्पन्न थयो छे, अंतर्मुख थईने स्वभावने अवलोकतां तेनो नाश
थई जाय छे.
“उपजे मोह विकल्पथी समस्त आ संसार,
अंतर्मुख अवलोकतां विलय थतां नहि वार.”
अहो! चैतन्य स्वभावमां तो आनंदरूपे ज थवानी शक्ति त्रिकाळ छे, पण पोतानी ते शक्तिने जीव देखतो
नथी तेथी ज तेने आनंदनुं परिणमन–वेदन थतुं नथी; ने बाह्यद्रष्टिथी ते दुःखने ज वेदे छे. ते दुःख वेदवानो तेनो
स्वभाव नथी. दुःख तो एक समयनुं मात्र पर्यायमां छे, ने आनंद स्वभावथी द्रव्य–गुण त्रिकाळ भरेलो छे. एकला
सिद्धोमां नहि पण बधाय आत्मामां आवो आनंदस्वभाव भरेलो छे, ते स्वभावमां जुए एटली ज वार छे.
जुओ, मुमुक्षु एम विचारे छे के मारे मोक्ष जोईए छे ने भव नथी जोईतो. आनो अर्थ ए थाय छे के
आत्मामां मोक्ष थवानो स्वभाव छे पण भव थवानो स्वभाव नथी; भवनी उत्पत्ति न थाय एवो आत्मानो
स्वभाव छे. आवा आत्मस्वभावने लक्षमां लीधा वगर ‘मोक्ष जोईए ने भव न जोईए’ एवी भावना साची होय
नहि. भवना कारणरूप विभावने जे पोताना स्वभावमां माने तेने भवथी छूटवानी खरी भावना ज नथी. एटले
खरी मुमुक्षुता तेने थइ ज नथी. जेनामां भव नथी एवा आत्मस्वभावनी सन्मुखता वगररहित थवानी साची
भावना होय नहीं.
प्रश्नः– समकितीने भवरहित स्वभावनी श्रद्धा होवा छतां तेने पण एकाद भव तो थाय छे?
उत्तरः– अनंत शक्तिना पिंडरूप भवरहित स्वभावनी द्रष्टिमां क्षणे क्षणे तेने मोक्षरूप परिणमन ज थई
रह्युं छे; त्यां एकाद भव रह्यो छे तेनो ते ज्ञाता ज छे, स्वभाव तरफना वलणमां तेने भव तरफना परिणमननी
प्रधानता नथी पण मोक्ष तरफना परिणमननी ज प्रधानता छे. अने जेनी प्रधानता होय तेनुं ज अस्तित्व गणवामां
आवे छे, माटे समकितीने भव नथी.
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D आत्मधर्मः १६६