होता नथी. ज्ञान स्वभाव सन्मुख थयेला ज्ञानमां, ज्ञानीने ज्ञान सिवाय बीजा कोई भावनो उदय थतो नथी,
रागादि भावो ज्ञान साथे कदी एकमेक थई जता नथी, ज्ञानमां बीजानो प्रवेश ज नथी, तो ज्ञानीने
अकस्मातनो भय क्यांथी होय? हुं तो ज्ञानस्वरूप ज छुं, एवी निःशंक प्रतीतिथी ज्ञानी सदा निर्भयपणे वर्ते
छे.
शरीरादिनो कदी प्रवेश नथी. मारो आत्मा कदी ज्ञानस्वरूपथी छूटीने शरीररूप के विकाररूप थई गयो नथी, आ
रीते ज्ञान सदा ज्ञानस्वरूप ज रहेतुं होवाथी तेमां बीजानो उदय ज नथी; ज्ञान कोईवार अणधार्युं जडरूप के
विकाररूप थई जाय–एवो अकस्मात् ज्ञानमां कदी थतो ज नथी, माटे ज्ञानस्वरूप आत्माने अनुभवता धर्मीने
अकस्मातनो भय होतो नथी. अकस्मात वीजळी पडीने मारा ज्ञानने नष्ट करी नांखशे तो? एवो भव ज्ञानीने
होतो नथी, केमके वीजळीमां एवी ताकात नथी के ज्ञानने अन्यथा करी शके. (ए ज रीते सर्प, अग्नि वगेरेमां
पण समजी लेवुं.)
निःशंकपणे हुं ज्ञानस्वरूपे वर्तुं छुं तेम भविष्यमां पण हुं ज्ञानस्वरूपे ज रहीश–एम धर्मीने निःशंक श्रद्धा छे,
अने निःशंक होवाथी ते निर्भय छे, –आवी निःशंकता अने निर्भयताथी ज्ञानस्वरूपने अनुभवतां तेने निर्जरा
थती जाय छे;––आ धर्म छे.
पण थतुं ज नथी. तेथी ज्ञानीने अकस्मातनो भय क्यांथी होय? ज्ञानमां अकस्मात नथी, तेम ज्ञेयोमां पण
अकस्मात नथी, केम के जगतना पदार्थोमां जे कांई परिणमन थई रह्युं छे ते तेमना परिणमन–स्वभाव
अनुसार व्यवस्थित (क्रमबद्ध) ज छे. ––आवा वस्तुस्वभावने जाणनार धर्मात्माने आकस्मिकभय होतो नथी.
आ मारा ज्ञानस्वरूपथी मने च्यूत करी नाखशे! ” “मने मारा ज्ञानस्वरूपथी च्यूत करवा जगतमां कोई समर्थ
नथी” ––एवी निःशकताने लीधे ज्ञानी निर्भय छे एम जाणवुं. एवा प्रकारनो कोई भय तेने होतो नथी के
जेनाथी पोताना ज्ञानस्वरूपनी श्रद्धाथी ते च्यूत थई जाय! सिंहादिनो भय थाय ते वखते पण अंतरमां ते
भयथी पार चिदानंद तत्त्वनी निःशंक श्रद्धा तेने वर्ते छे, अने तेथी ते निर्भय छे. अने कोई अज्ञानी जीव सिंह–
वाघ आवे छतां एम ने एम निर्भयपणे ऊभो रहे, सिंह शरीरने खाई जाय छतां डगे नहि, पण अंदर
रागथी पार चैतन्यतत्त्वनुं वेदन नथी ने रागनी मंदताने धर्म मानी रह्यो छे, तो ते खरेखर निर्भय नथी पण
अनंत भयमां डुबेलो छे; केमके आवा शुभ राग वगर मारुं चैतन्यतत्त्व नहि टकी शके––एवी शंकामां ज ते
ऊभो छे. ज्ञानी जाणे छे के मारुं चैतन्यतत्त्व परवस्तु के राग वगर स्वत: ज्ञानस्वरूपे टकेलुं छे. ज्ञानमांथी
रागादि प्रगटे एवो अकस्मात कदी बनतो नथी, माटे मारा ज्ञानमां अकस्मात थतो नथी, तेथी मारा
ज्ञानस्वरूपमां हुं निःशंक छुं––आवी निःशंकताने लीधे ज्ञानी निर्भय छे अने तेने बंधन थतुं नथी पण निर्जरा
ज थाय छे.
क्षय करीने परम सिद्धपदने पामे छे, ते तेना सम्यग्दर्शननो प्रताप छे. समकिती धर्मात्मा निजरसथी भरपूर
ज्ञानने ज अनुभवे छे, ज्ञानना अनुभवमां रागादिने जरा पण भेळवता नथी, निःशंकपणे पोताना
ज्ञानस्वरूपने रागादिथी अत्यंत भिन्न अनुभवे छे अने आ रीते ज्ञानस्वरूपना अनुभववडे ते समस्त कर्मोने
हणी नांखे छे ने सिद्धपदने प्राप्त करे छे.