Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 23 of 25

background image
: २२ : आत्मधर्म : भादरवो : २४८३ :
आ शरीराश्रित दस प्राणो छे ते जड छे; ते प्राणोना वियोगने लोकोमां मरण कहेवाय छे, पण ज्ञानी तो
जाणे छे के हुं तो सत्–चैतन्यमय छुं, मारा प्राण तो चैतन्यमय छे, चैतन्यप्राणनो मने कदी वियोग थतो नथी
माटे मारुं मरण थतुं नथी. पांच ईन्द्रियो, श्वास, आयु के मन–वचन–काया ते बधा जड छे, ते माराथी भिन्न छे,
ते जड प्राणथी जीवनारो हुं नथी. हुं तो मारा चैतन्यप्राणथी जीवनारो छुं. मारा चैतन्यप्राण शाश्वत छे–आवुं
जाणता धर्मीने मरणनो भय होतो नथी. मरण ज मारुुं नथी, – पछी मरणनो भय केवो? जगतने मरण तणी
बीक छे, पण ज्ञानी तो निर्भय छे, तेने मरणनो भय होतो नथी. मिथ्यात्वपणामां आत्मानुं मरण मानतो
त्यारे मरणनी बीक हती, पण शाश्वत चैतन्यप्राणथी सदा जीवनार आत्माने जाणीने ज्यां मिथ्यात्वनो नाश
कर्यो त्यां ज्ञानीने मरणनो भय होतो नथी. जन्म–मरण तो शरीरना संयोग–वियोगथी कहेवामां आवे छे, पण
आत्मा चैतन्यस्वरूपे कायम रहेनारो छे, ते कांई जन्मतो के मरतो नथी, जीवनशक्तिथी आत्मा सदा जीवंत छे,
तेनो कदी नाश थतो नथी, तेथी आवा आत्मस्वभावनी द्रष्टिवंत धर्मात्माने मरणनी बीक होती नथी.
जुओ, एक माणसनो छोकरो मरी गयो; तेने कोईए खबर आप्या के तमारो छोकरो मरी गयो. ते
सांभळीने ते माणस कहे के “अमे धर्मी छीए, माटे अमारा छोकरा नानी उमरमां मरे नहि.” ––आवो जवाब
सांभळीने बीजो कहे के जुओ, एने धर्मनी केवी द्रढता छे! पण ज्ञानी तो कहे छे के ते धर्मी नथी पण मोटो मूढ
छे! धर्मी होय माटे तेना दीकरा नानी वयमां न मरे–एम कांई नियम नथी. धर्मनो संबंध कांई दीकराना
आयुष्य साथे नथी. कोई अधर्मी होय छतां दीकरा घणुं जीवे, ने कोई धर्मी होय छतां दीकरा नानी उंमरमां मरी
पण जाय, अरे, धर्मीने पोताने य कोईवार ओछुं आयुष्य होय! पापी लांबुं जीवे ने धर्मीने टूकुं आयुष्य होय–
एम पण जगतमां बने छे. आठ वर्षनुं टूंकुं आयुष्य होय छतां आत्मामां लीन थईने केवळज्ञान पामीने मोक्षे
जाय, माटे लांबा–टूंका आयुष्य उपरथी धर्मीनुं माप नथी. धर्मीनुं माप तो आ रीते छे के तेणे पोताना आत्माने
शाश्वत चैतन्यप्राणे जीवनारो जाण्यो छे एटले तेने मरणनो भय होतो नथी; निःशंकपणे अने निर्भयपणे ते
पोताना सहज ज्ञानानंदस्वरूपने ज अनुभवे छे; तेथी देह छूटवाना अवसरे पण तेने निर्जरा ज थती जाय छे.
(७) परथी भिन्न ज्ञानस्वभावनी द्रष्टिमां ज्ञानीने
अकस्मातनो भय होतो नथी.
आत्मा कायमी ज्ञान–आनंदस्वरूप वस्तु छे तेनी ज्यां प्रतीत थई त्यां ज्ञानीने अकस्मातनो एवो भय
नथी होतो के “मारा ज्ञानमां अचानक कांईक अनीष्ट आवी पडशे तो! ” ज्ञानी तो जाणे छे के मारुं ज्ञान
अनादि–अनंत एकरूपे अचळ ज्ञानस्वरूपे ज रहेनारुं छे, तेमां कोई पर चीज के परभाव अचानक आवीने
ज्ञानने बगाडी जाय एम बनतुं नथी, माटे अकस्मातनो भय ज्ञानीने होतो नथी, एम हवे कहे छे:– –
एकं ज्ञानमनाद्यनंतमचलं सिद्धं किलैतत्स्वतो
यावत्तावदिदं सदैव दि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः।
तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।।१६०।।
धर्मी जाणे छे के मारो आत्मा ज्ञानस्वरूप छे; हुं अनादिअनंत ज्ञानस्वरूप ज छुं; मारुं ज्ञान पलटीने
अचानक जडरूप थई जाय के रागरूप थई जाय एवो अकस्मात ज्ञानमां कदी बनतो ज नथी, ज्ञान तो सदा
ज्ञानरूप ज रहे छे. आवा ज्ञानमां धर्मीने अकस्मातनो भय होतो नथी. ज्ञानमां ज्ञाननो ज उदय रहे छे,
ज्ञानमां बीजानो उदय थतो नथी, आवा ज्ञानने निःशंकपणे अनुभवता होवाथी धर्मीजीव अकस्मात वगेरेना
भयथी रहित निर्भय होय छे.
धर्मी जीवनुं सम्यग्दर्शन अंतरंग स्वभावना साधनथी थयुं छे, कोई बाह्य साधनना अवलंबनथी नथी
थयुं; तेथी कोई बाह्य वस्तुना भयथी ते पोताना ज्ञानस्वरूपथी च्यूत थता नथी ते ज्ञानस्वरूपना अवलंबने
सम्यग्दर्शन–ज्ञानमां निःशंक अने निर्भयपणे वर्ते छे.