Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: भादरवो : २४८३ : आत्मधर्म : २१ :
कोई बीजानो प्रवेश ज नथी–एवुं जाणता ज्ञानीने स्वरूपनी अगुप्तिनो भय होतो नथी. ज्ञान आत्मा साथे
सदाय एकाकारपणे ज रहेलुं छे एटले आत्मा सदाय पोतानी ज्ञानगुफामां ज वसेलो छे, ज्ञानगुफामां बीजा
कोईनो प्रवेश ज नथी–पछी अगुप्तिनो भय क्यांथी होय? मारा ज्ञानमां कोई बीजो आवी शके नहि, ने मारुं
ज्ञान आत्माथी जुदुं पडीने बीजामां जाय नहि, ज्ञानस्वरूप मारो आत्मा पोते पोताना स्वरूपमां गुप्त ज छे.
आम निःशंकपणे जाणतो ज्ञानी निर्भयपणे पोताना सहज ज्ञानने ज निरंतर अनुभवे छे, तेने अगुप्तिनो भय
होतो नथी.
जेम लोकोमां रूपीआ–सोनुं–दागीना वगेरे वस्तु संताडीने–गुप्तपणे न राखे तो कोईक उपाडी जाय त्यां
पैसानी रक्षा खातर ममतावाळाने अगुप्तिनो भय होय छे, परंतु पैसा तो जुदी चीज छे एटले ते तो चाल्या
जाय; तेनी रक्षाना लाख उपाय करे तो पण तेनी रक्षा न थई शके. पण अहीं ज्ञानमां तेवो अगुप्तिनो भय नथी,
केमके ज्ञान तो आत्माथी सदा अभिन्न होवाथी तेने कोई लई जई शकतुं नथी, तेथी ते तो स्वत: रक्षित अने
गुप्त ज छे, ––आवा निज स्वरूपने जाणता ज्ञानीने अगुप्तिनो भय होतो नथी.
‘गुप्ति’ एटले जेमां चोर वगेरे प्रवेशी न शके एवो किल्लो, भोंयरुं वगेरे निर्भयस्थान; तेमां प्राणी
निर्भयपणे रही शके छे. जो गुप्त प्रदेश न होय ने खुल्लो प्रदेश होय तो तेमां रहेनार प्राणीने भय लागे छे. तेम
अहीं कहे छे के आत्माने रहेवा माटे एवुं कोई निर्भय गुप्तिस्थान खरुं? के जेमां आत्मा निर्भयपणे रही शके?
तो कहे छे के हा, आत्मानुं ज्ञानस्वरूप ज आत्मानी परमगुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे, केम के आत्माना
ज्ञानस्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेशी शकतुं नथी. ––आवा आत्मस्वरूपने जाणतो ज्ञानी पोतानी ज्ञानगुफामां
निर्भयपणे वसे छे, त्यां तेने अगुप्तिनो भय होतो नथी.
(६) शाश्वत चैतन्यप्राणनो अनुभवनार ज्ञानीने
मरणनो भय होतो नथी.
प्राणोच्छेदमुदाहरंति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्।
तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निःश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।।१५९।।
ज्ञानीने मरणनो भय होतो नथी, केमके आत्मा कदी मरतो ज नथी, आत्मा तो पोताना चैतन्यप्राणथी
सदा जीवंत छे. ––आवा आत्माने ज्यां निःशंकपणे जाण्यो त्यां मरणनो भय क्यांथी होय? देहमां जेने
आत्मबुद्धि छे एवो अज्ञानी जीव, देहमां कांईक फेरफार थतां ‘हाय, हाय! हुं मरी जईश! ’ –एम मरणथी
भयभीत रहे छे; पण ज्ञानीए तो आत्माने देहथी अत्यंत भिन्न जाण्यो छे, त्यां तेमने मरणनी बीक क्यांथी
होय?
प्राणोना नाशने मरण कहे छे. आत्माना प्राण तो निश्चयथी ज्ञान छे; ते ज्ञानप्राण स्वयंमेव शाश्वत
होवाथी तेनो कदापि नाश थतो नथी, माटे आत्मानुं मरण थतुं ज नथी. जड प्राण ते तो खरेखर आत्माथी जुदा
छे, ते कांई आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी, तेथी ते जड प्राणोना वियोगथी कांई आत्मा मरी जतो नथी, आत्मा तो
पोताना स्वाभाविक चैतन्यप्राणथी सदा जीवी ज रह्यो छे, ––तो पछी आवा आत्मस्वरूपने जाणनार ज्ञानीने
मरणनो भय क्यांथी होय? ज्ञानी तो चैतन्यप्राणथी सदाय जीवंत एवा पोताना आत्माने निःशंकपणे अनुभवे
छे; ‘कोई संयोगवडे मारुं मरण थई जशे’ एवी मरणनी शंका के भय तेने होतो नथी.
जे आ ईन्द्रियादि दस प्राणो छे ते तो आत्माने संयोगरूप छे, ते कांई आत्माना स्वभावरूप नथी, तेथी
ते प्राणोना वियोगथी कांई आत्मानो नाश थई जतो नथी. आत्माना स्वभावरूप प्राण तो चैतन्य छे, ते
चैतन्यप्राणनो आत्माने कदी वियोग थतो नथी तेथी आत्मानुं मरण थतुं ज नथी.