सदाय एकाकारपणे ज रहेलुं छे एटले आत्मा सदाय पोतानी ज्ञानगुफामां ज वसेलो छे, ज्ञानगुफामां बीजा
कोईनो प्रवेश ज नथी–पछी अगुप्तिनो भय क्यांथी होय? मारा ज्ञानमां कोई बीजो आवी शके नहि, ने मारुं
ज्ञान आत्माथी जुदुं पडीने बीजामां जाय नहि, ज्ञानस्वरूप मारो आत्मा पोते पोताना स्वरूपमां गुप्त ज छे.
आम निःशंकपणे जाणतो ज्ञानी निर्भयपणे पोताना सहज ज्ञानने ज निरंतर अनुभवे छे, तेने अगुप्तिनो भय
होतो नथी.
जाय; तेनी रक्षाना लाख उपाय करे तो पण तेनी रक्षा न थई शके. पण अहीं ज्ञानमां तेवो अगुप्तिनो भय नथी,
केमके ज्ञान तो आत्माथी सदा अभिन्न होवाथी तेने कोई लई जई शकतुं नथी, तेथी ते तो स्वत: रक्षित अने
गुप्त ज छे, ––आवा निज स्वरूपने जाणता ज्ञानीने अगुप्तिनो भय होतो नथी.
अहीं कहे छे के आत्माने रहेवा माटे एवुं कोई निर्भय गुप्तिस्थान खरुं? के जेमां आत्मा निर्भयपणे रही शके?
तो कहे छे के हा, आत्मानुं ज्ञानस्वरूप ज आत्मानी परमगुप्ति अर्थात् अभेद्य किल्लो छे, केम के आत्माना
ज्ञानस्वरूपमां बीजुं कोई प्रवेशी शकतुं नथी. ––आवा आत्मस्वरूपने जाणतो ज्ञानी पोतानी ज्ञानगुफामां
निर्भयपणे वसे छे, त्यां तेने अगुप्तिनो भय होतो नथी.
ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित्।
तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निःश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।।१५९।।
आत्मबुद्धि छे एवो अज्ञानी जीव, देहमां कांईक फेरफार थतां ‘हाय, हाय! हुं मरी जईश! ’ –एम मरणथी
भयभीत रहे छे; पण ज्ञानीए तो आत्माने देहथी अत्यंत भिन्न जाण्यो छे, त्यां तेमने मरणनी बीक क्यांथी
होय?
छे, ते कांई आत्मानुं खरुं स्वरूप नथी, तेथी ते जड प्राणोना वियोगथी कांई आत्मा मरी जतो नथी, आत्मा तो
पोताना स्वाभाविक चैतन्यप्राणथी सदा जीवी ज रह्यो छे, ––तो पछी आवा आत्मस्वरूपने जाणनार ज्ञानीने
मरणनो भय क्यांथी होय? ज्ञानी तो चैतन्यप्राणथी सदाय जीवंत एवा पोताना आत्माने निःशंकपणे अनुभवे
छे; ‘कोई संयोगवडे मारुं मरण थई जशे’ एवी मरणनी शंका के भय तेने होतो नथी.
चैतन्यप्राणनो आत्माने कदी वियोग थतो नथी तेथी आत्मानुं मरण थतुं ज नथी.