शुं? मारा ज्ञानमां अरक्षापणुं जरापण नथी. आवी निःशंकतामां धर्मीने अरक्षानो भय क्यांथी होय? ते तो
निःशंक अने निर्भय वर्ततो थको पोताना स्वतःरक्षित ज्ञानने अनुभवे छे.
अणुबोम के रोगमां एवी ताकात नथी के तारा ज्ञानस्वरूपनो नाश करे, माटे ज्ञानस्वरूपनी प्रतीत कर, तो
अरक्षानो भय टळे. धर्मी जाणे छे के हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं, मारुं ज्ञानस्वरूप स्वयमेव सत् होवाथी पोते पोताथी
रक्षित ज छे; माटे कोई बीजो आवीने मारा ज्ञानने बगाडी नाखशे–एवो भय धर्मात्माने होतो नथी. आ देह
तो संयोगी अने नाशवान ज छे, तेनी रक्षाना लाख उपाय करे तो पण तेनी रक्षा थई शकती ज नथी; त्यारे
आत्मा तो चैतन्यस्वरूप असंयोगी स्वतःसिद्ध सत् छे, तेनो नाश कोईथी थई शकतो ज नथी. आवा
चैतन्यस्वरूपने जे निरंतर अनुभवे छे एवा ज्ञानीने पोतानी अरक्षानो भय क्यांथी होय? –ते तो निःशंकपणे
सहज ज्ञानस्वरूपने ज सदा अनुभवे छे.
स्वतःसिद्ध अविनाशी छे, तेनो नाश कदी थतो ज नथी. –आवा आत्माने जाणता होवाथी ज्ञानीने पोतानी
अरक्षानो भय कदी होतो नथी.
लोक ज पोतानो छे अने बीजा कोई वडे ते बगाडी शकातो नथी, ने चैतन्यस्वरूपने छोडीने आत्मा क्यांय बीजे
जतो नथी, एम जाणता होवाथी ज्ञानीने आ लोक के परलोक संबंधी भय होता नथी. (३) आत्मा तो
चैतन्यवेदननो वेदनार छे, तेमां बहारनी बीजी कोई वेदना होती नथी, तेथी ज्ञानीने वेदनानो भय होतो नथी;
(४) वळी आत्मानुं सत् चैतन्यस्वरूप पोते पोताथी ज रक्षित स्वयंसिद्ध होवाथी तेनो कदी कोईथी नाश थतो
नथी, माटे अरक्षानो भय ज्ञानीने होतो नथी. ए रीते चार भयनो अभाव कह्यो. हवे पांचमो अगुप्ति भय
पण ज्ञानीने नथी एम कहे छे––
च्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः।
अस्यागुप्तिग्तो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निःश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।।१५८।।
ज्ञानस्वरूप पोते पोताथी ज गुप्त छे. –आवा पोताना ज्ञानस्वरूपने जाणता धर्मीने अगुप्तिनो भय होतो नथी.
मारा स्वरूपमां बीजुं कोई आवी ज शकतुं नथी, तो कोई चोर वगेरे मारामां आवीने मारा स्वरूपने चोरी जाय
के बगाडी जाय–ए वात क्यां रही?
तो स्वभावथी ज एवो गुप्त छे के तेमां कदी बीजुं कोई प्रवेशी ज शकतुं नथी. मारा ज्ञानस्वरूपमां