: भादरवो : २४८३ : आत्मधर्म : १९ :
सम्यग्द्रष्टि
निःशंक अने निर्भय होय छे
[समयसार निर्जरा अधिकार उपरना प्रवचनोमांथी
वीर सं. २४८३, जेठ वद ८–९–१०]
(गतांकथी चालु : लेखांक बीजो)
सम्यग्दर्शन शुं संयोगना अवलंबने थयुं छे के संयोग तेनो
नाश करे? –नहि; सम्यग्दर्शन तो स्वभावना अवलंबने थयुं छे, तेथी
ज्ञानस्वभावना अवलंबने धर्मी निःशंकपणे वर्ते छे, बाह्य संयोगना
भयथी ते कदी स्वरूपमां शंक्ति थता नथी. ज्यां निःशंकता अने
निर्भयताथी झगझगतो सम्यक्त्वरूपी सूरज ऊग्यो त्यां ते सूरजनो
प्रताप आठे कर्मोने बाळीने भस्म करी नांखे छे. समकिती
अल्पकाळमां ज सर्वकर्मनो क्षय करीने परम सिद्धपदने पामे छे ते
तेना सम्यग्दर्शननो प्रताप छे.
हुं सहज ज्ञान ने आनंदस्वरूप छुं–एवी जेने अंतर्द्रष्टि थई छे–एवा सम्यग्द्रष्टि जीवो अत्यंत निःशंक
अने निर्भय होय छे;–केम? –कारण के तेओ पोताना ज्ञानानंदस्वरूप सिवाय समस्त परद्रव्यो प्रत्ये अत्यंत
निरपेक्षपणे वर्ते छे; रागादि थाय तेनी पण अपेक्षा नथी एटले के आ राग मने कांई लाभ करशे एवी जरापण
बुद्धि नथी. हुं तो रागथी पार ज्ञान स्वरूप ज छुं, ए सिवाय बीजुं कांई मारुं छे ज नहि––आ प्रमाणे अत्यंत
निःशंक द्रढ निश्चयवाळा होवाथी सम्यग्द्रष्टि जीवो अत्यंत निर्भय छे; सात प्रकारना भय तेमने होता नथी.
(सात प्रकारना भयमांथी आ लोक, परलोक अने वेदना ए त्रण भयना अभाव संबंधी विवेचन पूर्वे कहेवाई
गयुं छे; ते उपरांत अरक्षा, अगुप्ति, मरण अने अकस्मात–ए चार प्रकारना भयनो पण सम्यग्द्रष्टिने अभाव
होय छे, तेनुं आ विवेचन चाले छे.)
(४) स्वत: सिद्धज्ञानने अनुभवता ज्ञानीने
अरक्षानो भय होतो नथी
ज्ञानने अरक्षानो भय होतो नथी; प्रतिकूळता आवी पडशे तो मारी रक्षा केम थशे–एवो भय ज्ञानीने
होतो नथी, केम के ते जाणे छे के हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं; बहारनी प्रतिकूळता आवीने मारा ज्ञानस्वरूपनो नाश
करे–एम नथी, मारुं ज्ञान तो स्वत: रक्षायेलुं छे, तेमां प्रतिकूळतानो प्रवेश ज नथी. आ रीते निःशंकता होवाने
लीधे ज्ञानीने अरक्षा भय होतो नथी, ––एम हवे कहे छे––
यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थिति–
र्ज्ञानं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः।
अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो
निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति।।
धर्मात्मा जाणे छे के मारुं ज्ञानस्वरूप स्वयमेव सत् छे, अने जे सत् छे ते कदी नाश पामतुं नथी,