Atmadharma magazine - Ank 167
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष चौदमुं : अंक ११ मो
सम्पादक : रामजी माणेकचंद दोशी भादरवो : २४८३
आत्मवात्सल्य
अहो! जेणे आत्मानुं हित करवुं होय, खरुं सुख जोईतुं
होय, तेणे आत्मानो परमप्रेम करवा जेवो छे. श्रीमद्
राजचंद्र पण कहे छे के :– –
“जगत ईष्ट नहीं आत्मथी”
––एटले जे धर्मी छे अथवा धर्मनो खरो जिज्ञासु छे
तेने जगत करतां आत्मा वहालो छे, आत्मा करतां जगतमां
कांई तेने वहालुं नथी. आचार्य भगवान कहे छे के: हे
भव्य!
“आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे.”
धर्मात्माने जगतने विषे पोतानो रत्नत्रयस्वरूप
आत्मा ज परमप्रिय छे, संसार संबंधी बीजुं कांई प्रिय
नथी. जेम गायने पोताना वाछरडां प्रत्ये, अने बाळकने
पोतानी माता प्रत्ये केवो प्रेम होय छे? तेम धर्मीने पोताना
रत्नत्रयस्वभावरूप मोक्षमार्ग प्रत्ये अभेदबुद्धिथी
परमवात्सल्य होय छे. पोताने रत्नत्रयधर्ममां परमवात्सल्य
होवाथी बीजा जे जे जीवोमां रत्नत्रयधर्मने देखे छे तेमना
प्रत्ये पण तेने वात्सल्यनो उभरो आव्या विना रहेतो नथी.