Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page  


PDF/HTML Page 25 of 25

background image
ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
– ए छे मुक्तिपुरीनो प्रवासी
जेणे निज शुद्धात्म द्रव्यनो स्वीकार करीने परिणतिने ते तरफ वाळी
छे एवा धर्मात्माने हवे क्षणे क्षणे मुक्ति तरफ ज परिणमन चाली रह्युं छे,
ते ‘मुक्तिपुरीनो प्रवासी’ थयो छे; तेथी “हवे मारे अनंत संसार हशे! ”
एवी शंका तेने ऊठती ज नथी; स्वभावना जोरे तेने एवी निःशंकता छे के
हवे अल्प ज काळमां मारी मुक्तदशा खीली जशे.
आत्मानो आनंदमय चैतन्य स्वभाव छे,
ते स्वभावमां भव नथी, ते स्वभावमां शंका नथी.
ते स्वभावमां भय नथी, ते स्वभावमां विकार नथी;
– तेथी –
ज्यां आवा स्वभावनो निर्णय करीने तेनी सन्मुख परिणमन थयुं
त्यां आनंदनुं वेदन थाय छे.
त्यां भव रहेता नथी, त्यां शंका रहेती नथी.
त्यां भय रहेतो नथी, त्यां विकार रहेतो नथी;
माटे –
धर्मी भवनो नाशक छे, धर्मी निःशंक छे,
धर्मी निर्भय छे, धर्मी विकारनो नाशक छे.
आवो धर्मात्मा अल्पकाळमां संपूर्ण विकारनो नाश करीने अने
संपूर्ण शुद्धता प्रगट करीने, सिद्ध–परमात्मा थई मुक्तिपुरीमां पहोंची जाय छे.
धन्य छे.ए मुक्तिपुरीना प्रवासीने!
मुद्रक :– हरिलाल देवचंद शेठ, आनंद प्रिन्टींग प्रेस, भावनगर
प्रकाशक :– स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टवती हरिलाल देवचंद शेठ–भावनगर