Atmadharma magazine - Ank 168
(Year 14 - Vir Nirvana Samvat 2483, A.D. 1957)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २४८३ ‘आत्मधर्म’ : २३ :
करीने जाणे तो ते अतीन्द्रिय ज्ञानवडे देहादिथी भिन्न चिदानंदस्वरूप आत्मानुं स्वसंवेदन थाय, एटले
बहिरात्मपणुं टळीने अंतरात्मपणुं थाय.
जे जीव ईन्द्रियोने ज्ञाननुं कारण माने तेने ईन्द्रियविषयोना ज पोषणनो अभिप्राय छे. ईन्द्रियोना विषयो
अनुकूळ होय तो ईन्द्रियो पुष्ट रहे, ने ईन्द्रियो पुष्ट होय तो ज्ञान सारुं थाय एम अज्ञानी माने छे तेथी ते
ईन्द्रियोने ज आत्मा माने छे ने ईन्द्रियद्वारा ज तेनुं ज्ञान प्रवर्ततुं होवाथी एकला बाह्य विषयोमां ज ते वर्ते छे,
तेथी अंतरना चैतन्य विषयने जाणवा माटे तेनुं ज्ञान “नापास” छे, चैतन्यने जाणवानी परीक्षामां ते नापास थाय
छे. भले मेट्रीक वगेरे मोटी परीक्षामां पहेले नंबरे पास थाय पण जो चैतन्यतत्त्वने न जाण्युं तो तेनुं ज्ञान नापास
ज छे–मिथ्या ज छे. अने अभण होय–लखतां वांचतां य आवडतुं न होय पण ज्ञानने अंतर्मुख करीने
चैतन्यविषयने जो जाणे छे तो तेनुं ज्ञान पास छे, तेनुं ज्ञान मोक्षनुं कारण छे. जे ज्ञान मोक्षनुं कारण थाय ते ज
साची विद्या छे; ए सिवाय लौकिक विद्या गमे तेटली भणे तो पण आत्मविद्यामां तो ते नापास ज छे.
अरे! पोताना चैतन्यतत्त्वने चूकीने देहादिमां ज आत्मबुद्धिथी अज्ञानी जीव क्षणे क्षणे भयंकर
भावमरणमां मरी रह्यो छे. बाह्य विषयोमांथी सुख लेवा मांगे छे पण तेमां तो अंतरनुं वास्तविक सुख
भूलाई जाय छे; ईन्द्रियज्ञानवडे ईन्द्रियविषयोने ज जाणे छे ने तेमांथी सुख लेवा मांगे छे, पण तेमां तो
पोताना चैतन्यप्राणनो घात थाय छे–आत्मानो आनंद हणाय छे ने दुःख थाय छे, तेनो विचार पण अज्ञानीने
नथी. चैतन्यना भान वगर व्रतादि पण यथार्थ न होय. चैतन्यसन्मुख वृत्ति वळ्‌या वगर, बाह्य विषयोना
त्यागरूप व्रत पण होय नहि. चैतन्यस्वभावनी सन्मुखता वगर अज्ञानी व्यवहारे व्रतादि पाळे तो पण ते
ईन्द्रियद्वारा बाह्यविषयोमां ज वर्ते छे.
“आत्मा देहादिथी जुदो छे” एम भले शास्त्रादिकथी कहे, पण ईन्द्रियोथी अने रागथी ज्ञान माने तो ते
जीव देहादिने ज आत्मा माने छे, देहथी जुदो आत्मा ते मानतो नथी. देहथी भिन्न आनंदस्वरूप आत्मा
ईन्द्रियोद्वारा के रागद्वारा जणातो नथी, अंतर्मुख थईने अतीन्द्रिय ज्ञानद्वारा ज आत्मा जणाय छे. अने आवा
आत्माने जे जाणे तेने ज चैतन्यना आश्रये वीतरागी समाधि रहे छे. देहादिनी मर्च्छा छोडीने चैतन्यमां
सावधान थयो ते ज समाधि छे. ।। ।।
(८–९)
आत्मज्ञानथी विमुख होवाथी, अने इंद्रियज्ञान द्वारा ज जाणतो होवाथी अज्ञानी जीव देहथी भिन्न
पोताना आत्माने जाणतो नथी, शरीरने ज आत्मा माने छे; तेमज बीजामां पण ते रीते शरीरने ज आत्मा
माने छे, अने आत्माने ज मनुष्यादिरूपे माने छे, ते वात हवे आठमी तथा नवमी गाथामां कहे छे–
नरदेहस्थमात्मानमविद्वान्मन्यते नरम्।
तिर्यंचं तिर्यगंगस्थं सुरांगस्थं सुरं तथा।।
८।।
नारकं नारकांगस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा।
अनंतानंतधीशक्तिः स्वसंवेद्योऽचलस्थितिः।।
९।।
जुओ, आ अविद्वान जीवनी मान्यता! अंतर्मुख थईने जे अतीन्द्रिय आत्माने नथी जाणतो ने देहादिने
आत्मा माने छे ते भले गमे तेटला शास्त्रो भण्यो होय तोपण अविद्वान छे–मूर्ख छे–मिथ्याद्रष्टि छे. पहेलांं एम
कह्युं के ज्ञानने स्वसन्मुख करीने जे पोताना आत्माने नथी जाणतो ते पोताना शरीरने ज आत्मा माने छे. अने
ए रीते जे पोतामां शरीरने ज आत्मा माने छे ते बीजामां पण मनुष्य–देव वगेरेना शरीरने आत्मा ज माने
छे,–एम हवे कहे छे.
जे जीव बाह्य द्रष्टिवाळो अविद्वान छे ते नरदेहमां रहेला आत्माने नर माने छे; ए ज प्रमाणे तिर्यंच
शरीरमां रहेला आत्माने तिर्यंच माने छे, देवशरीरमां रहेला आत्माने देव माने छे तथा नारकशरीरमां रहेला
आत्माने नारक माने छे; परंतु आत्मा तो ते देहथी जुदो अनंतानंत ज्ञानादि शक्तिसंपन्न, स्वसंवेद्य,
अचलस्थितिवाळो छे, तेने ते जाणतो नथी. शरीर तो टूंकी मुदतवाळुं जड छे, ने आत्मा तो सळंग स्थितिवाळो
चैतन्यशक्तिसंपन्न छे–एम अज्ञानी बंनेनी भिन्नताने ओळखतो नथी. अने ए प्रमाणे चिदानंदशक्तिसंपन्न
आत्माने जे ओळखतो नथी ते भले शास्त्रो भणेलो मोटो विद्वान गणातो होय तो पण खरेखर ते अविद्वान ज
छे, चैतन्यविद्यानी तेने खबर नथी.