आ समाधिशतक छे; तेमां आत्माने समाधि केम थाय? ते बतावे छे. समाधि ते स्वाधीन छे–आत्माने
भानपूर्वक आत्मामां एकाग्रत रहे तेनुं नाम समाधि छे. पण देहादिथी भिन्न आत्माने भूलीने, शरीर वगेरे
परद्रव्योने ज जे ‘आत्मा’ माने तेने बाह्यविषयोमांथी एकाग्रता छूटे नहि ने आत्मामां एकाग्रता थाय नहि
एटले तेने समाधि न थाय, तेना आत्मामां तो असमाधिनुं तंत्र रहे छे. मिथ्यात्वादिभाव ते असमाधि छे.
चैतन्यस्वभावनी सन्मुखताथी सम्यक्त्वादिभाव प्रगटे ते समाधि छे.
करीने ‘ते ज हुं’ एम अज्ञानी माने छे. शरीरथी भिन्न अतीन्द्रिय आत्मा तो तेने ईन्द्रियद्वारा भासतो नथी.
जणाता आ देहादिने ज पोतानुं स्वरूप माने छे. देहादिक तो जड छे, ते कांई आत्मा नथी, आत्माथी अत्यंत
भिन्न छे. पण अज्ञानीने ईन्द्रियज्ञानद्वारा देहथी जुदो आत्मा देखातो नथी; तेथी देहना अस्तित्वमां ज पोतानुं
अस्तित्व माने छे. शरीरनी क्रियाओ ते जाणे के आत्मानुं ज कार्य होय–एम अज्ञानीने भ्रमणा छे; ईन्द्रियोथी ज
हुं जाणुं छुं एटले ईन्द्रियो ते ज आत्मा छे–एम तेने भ्रमणा छे. आ रीते अज्ञानी जीव पोताना देहने ज आत्मा
माने छे. तेमज परमां पण देहने ज आत्मा माने छे. देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप पोताना आत्माने नथी
ओळखतो तेथी बीजा आत्माने पण तेवा स्वरूपे ओळखतो नथी. पोते पोताना आत्मज्ञानथी पराङ्मुख वर्ततो
होवाथी, अने ईन्द्रियज्ञानद्वारा एकली बहिर्मुख प्रवृत्ति ज करतो होवाथी अज्ञानी जीव देहादिने ज आत्मा माने
छे, देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने ते जाणतो नथी.
बहिरात्मा छे. ज्ञानने अंतर्मुख