Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४८४ःपः
आठ अंगथी झगझगतो
सम्यक्त्वरूपी सूर्य
(समकितीना आठ अंगनुं अद्भुतवर्णन)
(२)
(स. गा. २३३ थी २३६ उपरना प्रवचनोमांथीः गतांकथी चालु)
(प) सम्यग्द्रष्टि उपगूहन–अंग
हुं ज्ञायक स्वभाव छुं–एम अंर्तस्वभावना अनुभवपूर्वक ज्यां निःशंक प्रतीति थई त्यां समकिती
निर्भयपणे पोताना स्वरूपने साधे छे; त्यां तेने सात प्रकारना भयो होता नथी, ने निःशंकता वगेरे आठ
प्रकारना गुणो होय छे, ते गुणोनुं आ वर्णन चाले छे. समकितीनी निःशंकता, निःकांक्षता, निर्विचिकित्सा
अने अमूढद्रष्टि–ए चार अंगनुं वर्णन थई गयुं. हवे पांचमुं उपगूहन अंग बतावे छे.
जे सिद्धभक्ति सहित छे,
उपगूहक छे सौ धर्मनो,
चिन्मूर्ति ते उपगूहनकर
समकितद्रष्टि जाणवो. २३३
समकिती धर्मात्मा सिद्धभक्ति सहित छे, सिद्धभक्तिमां एटले के सिद्धसमान पोताना शुद्ध
आत्मामां उपयोगने गोपव्यो होवाथी (जोडयो होवाथी) धर्मीने ‘उपगूहन’ छे, अने क्षणे क्षणे तेनी
आत्मशक्तिओ वधती जती होवाथी तेने “उपबृंहण” पण छे. चिदानंद स्वभाव हुं छुं,–एम अंतरमां
उपयोगने जोडयो त्यां गुणोनुं उपबृंहण अने रागादि विकारनुं उपगूहन थई गयुं. स्वभावनी शुद्धता
प्रगटी त्यां दोषोनुं उपगूहन थई गयुं. आत्माना ज्ञानानंदस्वरूपना अवलंबने क्षणे क्षणे धर्मात्माने
गुणनी शुद्धता वधती जाय छे ने दोषो टळता जाय छे–तेनुं नाम उपबृंहण अथवा उपगूहन छे. धर्मीनी
द्रष्टिमां अल्पदोषनी