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मोक्षमार्गमां स्थिर राखे छे; –ए ज सम्यग्द्रष्टिनुं स्थितिकरण–अंग छे.
पोषवाना विकल्प तो तेने आवता ज नथी; अने बीजा अस्थिरताना जे विकल्प आवे छे ते विकल्पने पण
ज्ञायकस्वभावमां एकाकारपणे स्वीकारता नथी, पोताना ज्ञायकस्वभावने विकल्पथी जुदो ने जुदो ज देखे छे,
तेथी सम्यग्दर्शनरूप मार्गमां स्थितिकरण तो तेने सदाय वर्ते ज छे. परंतु अस्थिरताथी ज्ञान–चारित्ररूप मार्ग
प्रत्ये कोईवार कदाच मंदउत्साह थई जाय ने वृत्ति डगी जाय तो, पोताना ज्ञायकस्वभावना अवलंबननी
द्रढतावडे फरीने द्रढपणे पोताना आत्माने मार्गमां स्थिर करे छे, पोताना आत्माने मार्गथी भ्रष्ट थवा देता
नथी–एवुं धर्मीनुं स्थितिकरण–अंग छे. आवा स्थितिकरणने लीधे धर्मीनो आत्मा मार्गथी च्युत थतो नथी,
तेथी मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध तेने थतो नथी पण निर्जरा ज थाय छे.
छे.–आवो स्थितिकरणनो शुभभाव पण धर्मीने सहेजे आवी जाय छे.
स्थितिकरण छे. अने व्यवहारे बीजा आत्माने पण मोक्षमार्गथी च्यूत थवानो प्रसंग देखीने तेने उपदेशादि वडे
मोक्षमार्गमां स्थिर करवानो शुभभावधर्मीने आवे छे, ते व्यवहारस्थितिकरण छे. “अहो, आवो महापवित्र
जैनधर्म! आवो अपूर्व मोक्षमार्ग!! पूर्वे कदी नहि आराधेलो आवो मोक्षमार्ग..तेने साधीने हवे मोक्षमां
जवाना टाणां आव्या छे..तो तेमां प्रमाद के अनुत्साह केम होय?” –आम अनेक प्रकारे मोक्षमार्गनो महिमा
प्रसिद्ध करीने समकिती पोताना आत्माने तेमज बीजाना आत्माने मोक्षमार्गमां स्थिर करे छे, एनुं नाम
स्थितिकरण छे.
चिन्मूर्ति ते वात्सल्ययुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३प.
त्रण साधुओ प्रत्ये वात्सल्य होय छे, अने निश्चयथी पोताना रत्नत्रयरूप त्रण साधुओ प्रत्ये परमवात्सल्य होय छे.
अहीं निर्जरानो अधिकार होवाथी निश्चय अंगोनी मुख्यता छे. तेथी आचार्यदेवे निःशंक्ता आदि आठे अंगोनुं
निश्चयस्वरूप बताव्युं छे.
मार्गनी अनुपलब्धिथी थतो बंध नथी पण निर्जरा ज छे.
तेथी ज तेने निःशंकता आदि आठ गुणो होय छे, ने तेनाथी तेने निर्जरा थाय छे. आ रीते ‘टंकोत्कीर्ण एक
ज्ञायकस्वभावमयपणुं’ ते मूळ वस्तु छे, तेना ज अवलंबने आ निःशंकता आदि आठ गुणो टकेला छे, अने तेना ज
अवलंबने निर्जरा थाय छे. धर्मीनी द्रष्टिमांथी ते स्वभावनुं अवलंबन कदी एक क्षण मात्र पण खसतुं नथी.