Atmadharma magazine - Ank 169
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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कारतकः २४८४ः ७ः
तोपण ज्ञायकस्वभावनी श्रद्धाना बळने लीधे ते मोक्षमार्गथी भ्रष्ट थता नथी, श्रद्धाना बळे पोते पोताना आत्माने
मोक्षमार्गमां स्थिर राखे छे; –ए ज सम्यग्द्रष्टिनुं स्थितिकरण–अंग छे.
धर्मीने रागद्वेष आदिना विकल्पो तो आवे छे, परंतु तेमां मोक्षमार्गथी विरुद्धताना विकल्पो तेने नथी
आवता, अर्थात् कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने पोषवाना के रागादिथी धर्म थाय एवी मिथ्यामान्यतारूप उन्मार्गने
पोषवाना विकल्प तो तेने आवता ज नथी; अने बीजा अस्थिरताना जे विकल्प आवे छे ते विकल्पने पण
ज्ञायकस्वभावमां एकाकारपणे स्वीकारता नथी, पोताना ज्ञायकस्वभावने विकल्पथी जुदो ने जुदो ज देखे छे,
तेथी सम्यग्दर्शनरूप मार्गमां स्थितिकरण तो तेने सदाय वर्ते ज छे. परंतु अस्थिरताथी ज्ञान–चारित्ररूप मार्ग
प्रत्ये कोईवार कदाच मंदउत्साह थई जाय ने वृत्ति डगी जाय तो, पोताना ज्ञायकस्वभावना अवलंबननी
द्रढतावडे फरीने द्रढपणे पोताना आत्माने मार्गमां स्थिर करे छे, पोताना आत्माने मार्गथी भ्रष्ट थवा देता
नथी–एवुं धर्मीनुं स्थितिकरण–अंग छे. आवा स्थितिकरणने लीधे धर्मीनो आत्मा मार्गथी च्युत थतो नथी,
तेथी मार्गथी च्युत थवाना कारणे थतो बंध तेने थतो नथी पण निर्जरा ज थाय छे.
धर्मात्मा पोताना आत्माने मोक्षमार्गथी च्यूत थवा देता नथी, तेम बीजा कोई साधर्मीने कदाचित मोक्षमार्ग
प्रत्ये निरूत्साही थईने डगतो देखे, तो तेने उपदेशादि वडे मोक्षमार्ग प्रत्ये उल्लासित करीने द्रढपणे मार्गमां स्थिर करे
छे.–आवो स्थितिकरणनो शुभभाव पण धर्मीने सहेजे आवी जाय छे.
कोई एवो जराक डगवानो विचार आवी जाय, त्यां धर्मी शुद्धस्वभावनी द्रष्टिथी पोताना आत्माने
फरीने मोक्षमार्गमां द्रढपणे स्थिर करे छे;–आ रीते पोताना आत्माने मोक्षमार्गमां स्थिर करवो ते निश्चय
स्थितिकरण छे. अने व्यवहारे बीजा आत्माने पण मोक्षमार्गथी च्यूत थवानो प्रसंग देखीने तेने उपदेशादि वडे
मोक्षमार्गमां स्थिर करवानो शुभभावधर्मीने आवे छे, ते व्यवहारस्थितिकरण छे. “अहो, आवो महापवित्र
जैनधर्म! आवो अपूर्व मोक्षमार्ग!! पूर्वे कदी नहि आराधेलो आवो मोक्षमार्ग..तेने साधीने हवे मोक्षमां
जवाना टाणां आव्या छे..तो तेमां प्रमाद के अनुत्साह केम होय?” –आम अनेक प्रकारे मोक्षमार्गनो महिमा
प्रसिद्ध करीने समकिती पोताना आत्माने तेमज बीजाना आत्माने मोक्षमार्गमां स्थिर करे छे, एनुं नाम
स्थितिकरण छे.
* * *
(७) सम्यग्द्रष्टिनुं वात्सल्य–अंग
जे मोक्षमार्गे ‘साधु’ त्रयनुं वत्सलत्व करे अहो!
चिन्मूर्ति ते वात्सल्ययुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३प.
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र ए त्रणे मोक्षमार्गना साधक होवाथी ‘साधु’ छे; ए त्रण साधु प्रत्ये
एटले के रत्नत्रय प्रत्ये धर्मात्माने परम प्रीतिरूप वात्सल्य होय छे. व्यवहारमां तो आचार्य, उपाध्याय ने मुनि ए
त्रण साधुओ प्रत्ये वात्सल्य होय छे, अने निश्चयथी पोताना रत्नत्रयरूप त्रण साधुओ प्रत्ये परमवात्सल्य होय छे.
अहीं निर्जरानो अधिकार होवाथी निश्चय अंगोनी मुख्यता छे. तेथी आचार्यदेवे निःशंक्ता आदि आठे अंगोनुं
निश्चयस्वरूप बताव्युं छे.
सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयपणाने लीधे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने पोताथी
अभेदबुद्धिए सम्यक्पणे देखतो होवाथी ते मार्गवत्सल छे अर्थात् मोक्षमार्ग प्रत्ये अति प्रीतिवाळो छे, तेथी तेने
मार्गनी अनुपलब्धिथी थतो बंध नथी पण निर्जरा ज छे.
जुओ, आठे अंगना वर्णनमां “टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयपणाने लीधे” ...एम कहीने आचार्यदेवे खास
खूबी करी छे. सम्यग्द्रष्टि सदाय ‘टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमय’ छे, तेथी तेने शंका–कांक्षा आदि दोषो होता नथी, ने
तेथी ज तेने निःशंकता आदि आठ गुणो होय छे, ने तेनाथी तेने निर्जरा थाय छे. आ रीते ‘टंकोत्कीर्ण एक
ज्ञायकस्वभावमयपणुं’ ते मूळ वस्तु छे, तेना ज अवलंबने आ निःशंकता आदि आठ गुणो टकेला छे, अने तेना ज
अवलंबने निर्जरा थाय छे. धर्मीनी द्रष्टिमांथी ते स्वभावनुं अवलंबन कदी एक क्षण मात्र पण खसतुं नथी.