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आ वात्सल्यमां रागनी के विकल्पनी वात नथी, पण ‘सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तो मारो स्वभाव ज छे’–एम
रत्नत्रयने पोताना आत्मा साथे अभेदपणे अनुभववा, तेनाथी जराय भेद न राखवो, ए ज तेना प्रत्येनुं
परमवात्सल्य छे. जे चीजने पोतानी माने तेना प्रत्ये प्रेम होय छे. जेम गायने पोताना वाछरडां उपर अतिशय प्रेम
होय छे तेम धर्मी जाणे छे के आ रत्नत्रय तो मारा घरनी–मारा स्वभावनी चीज छे तेथी तेने रत्नत्रय प्रत्ये अतिशय
प्रेम होय छे.
भासती ज नथी. आ रीते ज्ञायक स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मात्मा रत्नत्रयने पोतानी साथे अभेदबुद्धिए देखतो
होवाथी, ते रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग प्रत्ये ते अत्यंत प्रीतिवाळो छे, मोक्षमार्ग तरफ तेने परमवात्सल्य होय छे,
ने रागादि विभाव प्रत्ये तेने प्रेम होतो नथी.
करतां आत्मा वहालो छे, आत्मा करतां जगतमां कांई तेने वहालुं नथी.
रत्नत्रयमां जे अभेदबुद्धि छे ते ज परम वात्सल्य छे. अने पोताने रत्नत्रयमां परम वात्सल्य होवाथी बहारमां बीजा
जे जे जीवोमां रत्नत्रयधर्मने देखे छे तेमना प्रत्ये पण तेने वात्सल्यनो ऊभरो आव्या विना रहेतो नथी, ते व्यवहार
वात्सल्य छे.
तेने मोक्षमार्गनो अत्यंत प्रेम छे, ने निमित्त तरीके मोक्षमार्गना साधक संतो प्रत्ये तेने परम आदर होय छे,
तेमज ए मोक्षमार्ग दर्शावनारा सर्वज्ञ भगवान अने वीतरागी शास्त्रो प्रत्ये पण प्रेम आवे छे. कुदेव–कुगुरु–
कुधर्म प्रत्ये के मिथ्यात्वादि परभावो प्रत्ये धर्मीने स्वप्ने य प्रेम आवतो नथी. आ रीते पोताना आत्मा साथे
अभेदरूपे ज मोक्षमार्ग–(सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मार्ग) ने देखतो होवाथी धर्मात्माने मार्गनी अप्राप्तिने
लीधे थतुं बंधन थतुं नथी पण निर्जरा ज थाय छे. मार्गने तो पोताना आत्मा साथे अभेदपणे ज देखे छे,
तेथी मार्ग प्रत्ये तेने परम वात्सल्य छे. जुओ, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय प्रत्ये जेने अभेदबुद्धि
होय तेने ज मोक्षमार्ग प्रत्ये खरुं वात्सल्य छे; जेने रत्नत्रय प्रत्ये जरा पण भेदबुद्धि छे एटले के रत्नत्रयने
अभेदआत्माना आश्रये ज न मानतां रागना के परना आश्रये रत्नत्रयनी प्राप्ति थवानुं जे माने छे तेने
खरेखर रत्नत्रय उपर वात्सल्य नथी, पण तेने तो राग उपर अने पर उपर वात्सल्य छे. धर्मी–सम्यग्द्रष्टि तो
रत्नत्रयने पोताथी अभेदबुद्धिए देखतो होवाथी, एटले के परना आश्रये जरा पण नहि देखतो होवाथी, तेने
रत्नत्रय प्रत्ये परम वात्सल्य होय छे.