Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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मागशरः २४८४ः७ः
एटलुं ज छे के ज्यारे आप महामुनिधर्मनी भगवती दीक्षा अंगीकार करवा अडगपणे तैयार थया छो
त्यारे आवो प्रसंग उपस्थित थाय छे.
दशरथः– पुत्र! तारा वचनो मारा दिलमां आरपार ऊतरी जाय छे. तारा दिलनी विशाळताथी मारुं अंतर
सांत्वन अनुभवे छे. मने ए ज विचार थाय छे के अहा! आ विश्वना खेल केवा न्यारा छे! आ
संयोग साथेना क्षणिक संबंधो केवा न्यारा छे!!
(सेनापति आवीने नमस्कार करे छे.)
दशरथः– शा समाचार छे, सेनापति!
सेनापतिः– महाराज! हुं राजकुमार भरतना महेलेथी आवुं छुं. आप जिनदीक्षा अंगीकार करी रह्या छो, ते हकीकत
जाणीने भरतना हैयामां आनंदनो पार नथी.
दशरथः– वाह, आनंद केम न होय! मुनिदशा ते तो परमात्मपदने भेटवानो मुक्तिनो महोत्सव! ते प्रसंगे
भरत जेवा वैरागी धर्मात्माने आनंद थाय तेमां आश्चर्य शुं छे?
सेनापतिः– पण महाराज! राजकुमार भरतने अत्यंत आनंद तो एटला माटे छे के तेणे पण आपनी साथे ज
जिनदीक्षा अंगीकार करवानो निर्णय करेल छे. जिनदीक्षा माटेनी घणाकाळनी भावना आजे पूरी थशे,
एथी ज ते अत्यंत आनंदित छे.
बधा एक साथेः– हें, आ शुं? शुं भरतजी पण मुनिव्रत धारण करवा तैयार थया छे? आटली नानी वयमां!
दशरथः–
अहा, जीवोना परिणाम केवा स्वतंत्र छे! जगतना पदार्थोनी शी गति छे! शी स्थिति छे!
जिनेन्द्रदेवनी दिव्यध्वनिमां आवेल सर्व पदार्थनी स्वतंत्रतानो ढंढेरो सत्य छे..क्रमबद्ध परिणमता
पदार्थो पोतपोताना उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य स्वभावने धारण करीने स्वतंत्र परिणमी रह्या छे. त्यां शेनो
हर्ष?–ने शेनो शोक? मात्र ज्ञान करवुं ते ज जीवनुं कर्तव्य छे..अहा! भरत पण शुं मारी साथे ज
दीक्षित थशे!
(भरत आवे छे, दरबारीओ ऊभा थई सन्मान करे छे; दशरथराजा तथा रामचंद्रजीने नमस्कार
करीने, भरत वैराग्यपूर्वक कहे छे–)
भरतः– हा, पिताजी! हुं पण आपनी साथे ज अडग मुनिपद धारण करीने मारा आत्मकल्याणने साधीश, माटे
आप आज्ञा करो.
दशरथः– हे वत्स! कुमार! तारी भावना उत्तम छे..परंतु हमणां ज तारी माताए तारा राज्याभिषेकनुं वरदान
मांग्युं छे, माटे हाल थोडो वखत तो राज्य करो..हजी तमे बाळक छो..पछी वृद्ध उंमर थतां सुखेथी
जिनदीक्षा लेजो.
भरतः– पिताजी! आ क्षणभंगुर जीवननो शो भरोसो!
विद्युत लक्ष्मी प्रभुता पतंग
आयुष् ते तो जलना तरंग
पुरंदरी चाप अनंग रंग
शुं राचिये ज्यां क्षणनो प्रसंग?
आयुष्य पूरुं थतां क्षणभरमां पाणीना परपोटानी जेम आ नाशवान देह छूटी जाय छे. तेमज आ मृत्यु
वृद्ध–बाळक के युवान वच्चे भेदभाव राखतुं नथी....ते मृत्यु कोने खबर क्यारे आवी पहोंचे? माटे
आत्महितमां प्रमादी थवुं योग्य नथी, माटे मने आज्ञा आपो.
शेठः– परंतु राजकुमार! महाराजा दीक्षा ल्ये छे ने हवे आ राज्यना धणी आप छो..माटे आप आ राज्यनुं
पालन करो..प्रजाजनो आपने विनंती करे छे. वळी मारी सलाह जो मानो तो हाल आप
गृहस्थाश्रममां रहीने व्यवहारधर्मनुं पालन करो, ते व्यवहारधर्मथी पण परंपरा मोक्ष थशे, समज्या?
तो पछी मुनि थवानी शी जरूर छे?
भरतः– नहि, शेठ! एम नथी. व्यवहारधर्म द्वारा कदी मोक्ष थतो नथी, व्यवहारधर्म ए तो पुण्यबंधनुं कारण
छे. पुण्यथी तो क्षणिक संयोगो मळीने छूटी जाय छे, तेनाथी जीवनुं कल्याण के मुक्ति थती नथी.
शेठः– अरे कुंवरजी! व्यवहारधर्मथी मोक्ष थाय एम तो अमारा बापदादाना वखतथी घणा लोको मानता
आवे छे,–ते शुं खोटुं?
भरतः– हा, जरूर, ते खोटुं छे. मोक्ष तो निश्चयधर्मनी आराधनाथी ज थाय छे, व्यवहारधर्मथी नहि. अनंत
जिनेन्द्र भगवंतो जे मार्गे विचर्या अने