Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः८ः आत्मधर्मः १७०
पवित्र मोक्षदशाने पाम्या, ते निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी ज पाम्या छे, नहि के व्यवहारधर्मथी;
माटे निश्चय रत्नत्रयनी आराधना ते ज मुक्तिनो पंथ छे, ने हवे अमे मुनि थईने तेने ज आराधवा
मांगीए छीए.
शेठः– अरे राजकुमार! आपनुं तत्त्वज्ञान घणुं ऊंचुं छे, परंतु आपनी वय हजी नानी छे. आवी नानी वयमां
मुनिना कठण धर्मोनुं पालन आप शी रीते करी शकशो? वस्त्र विना वनजंगलमां रहेवुं, शीयाळानी
कडकडती ठंडी अने उनाळाना धोमधखता ताप सहन करवा, निर्दोष भोजन लेवा, भूमि उपर सूवुं,
लंगोटीमात्र पण वस्त्रनो कटको अंग उपर धरवो नहि; आवा आकरा व्रततप आपनी कुमळी काया
कई रीते सहन करशे, बापा!
भरतः– अरे शेठ! आप गामना नगरपति अने संघना अग्रेसर थईने आम कां बोलो? शुं मुनिदशा
कष्टदायक छे? नहि शेठ! आप भूलो छो मुनिदशा कठण नथी, दुःखदायक नथी, ए तो
आनंददायक छे. अहा! मुनिदशा तो चारित्रनुं झरणुं छे, त्यां शांतिनी छोळो ऊछळे छे.
आनंदना हिलोळे झूलतो ने अतीन्द्रियसुखने अनुभवतो आत्मा सुख अने समाधिमां तरबोळ
थई जाय छे, आत्माना अनुभवथी ते तृप्त–तृप्त थई जाय छे. अहा, जैनमार्गनी मुनिदशा ते तो
शूरवीरनो मार्ग छे, कायरनुं त्यां काम नथी. आनंदरस–उपशमरसना समुद्रमां झूलती ते
मुनिदशा धन्य छे..
शेठःवाह रे वाह! कुंवरजी! आपनी वात तो बहु उत्तम छे, परंतु धर्मनी आवी ऊंची ऊंची वातमां
अमारा जेवा श्रावकोने बहु खबर न पडे; अमारे तो टूंकोने टच हिसाब के कांईक पुण्य दान
करीए तो सुखी थईए, बाकी ऊंडी वात तो आपणा आ शास्त्रीजी जाणे. केम शास्त्रीजी!
शास्त्रीजीः– बराबर छे शेठजी, आपनी वात! गृहस्थो तो पुण्य–भक्ति–दान–दया एवो व्यवहारधर्म ज आचरी
शके छे, ने ते व्यवहारधर्मथी ज तेओ मुक्ति पामे छे.
भरतः– अरे शास्त्रीजी! शास्त्रो भणीभणीने तमे आ शुं गोटावाळो छो? शुं गृहस्थोने सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञानरूप निश्चयधर्म न होय? अने पुण्य–भक्ति–दान–दया तो शुभ राग छे, ते राग वडे शुं कदी
मुक्ति थाय? जैनशासनमां तो रागने बंधनुं कारण कह्युं छे, मोक्षनुं कारण नथी कह्युं.
शास्त्रीजीः– कुंवरजी! आपनी वात ठीक छे; परंतु व्यवहार पण जोईए तो खरोने? में घणा शास्त्रोनो अभ्यास
कर्यो छे, तेमां व्यवहारने धर्मना टेकारूप कह्यो छे.
रामः– वाह वाह! शास्त्रीजी! तमे पण खूब भण्या!! शुं आ ज तमारा भणतरनो सार छे! व्यवहारनुं
अवलंबन छोडीने जे निश्चयस्वभावनो आश्रय करे छे तेने उपचारथी व्यवहारनो टेको कह्यो;
परंतु व्यवहारना ज अवलंबनथी लाभ मानीने तेमां जे अटकी जाय छे तेने तो ते व्यवहारना
अवलंबननुं फळ संसार ज छे शास्त्रोमां व्यवहारना अवलंबननुं फळ संसार ज कह्युं छे, ए शुं
तमे नथी जाणता?
शास्त्रीजीः– तो मुनिवरो पण पंचमहाव्रतनुं पालन शा माटे करे छे? अठ्ठावीस मूळगुण शा माटे धारण करे छे?
तीर्थजात्रा वगेरे शा माटे करे छे?
भरतः– शास्त्रीजी! मुनिओने रागभूमिकामां एवा भावो होय छे भले, परंतु ते भाव कांई मोक्षनुं कारण
नथी, मोक्षनुं कारण तो ते वखते तेमने जे शुद्धरत्नत्रय वर्ते छे–ते ज छे. भूमिका मुजब व्यवहार अने
शुभ राग होय पण ते भावो वडे कदी मोक्ष नथी थतो. मोक्ष तो थाय छे अंतरना श्रद्धा–ज्ञान अने
वीतराग चारित्रना बळ वडे, समज्या! अहा! वीतरागी रत्नत्रयनी आराधक मुनिदशा! एनी शी
दशा? मुनिओ तो मुक्तिपुरीना प्रवासी छे..एना दर्शनथी पण आत्माना रोमरोम हर्षथी उल्लसी जाय
छे..वाह, मुनिदशा वाह!
ए परम दिगंबर मुनिवर देखी, हईडुं हरखी जाय छे,
ए परम प्रतापी संतने नीरखी, आनंद उछळी जाय छे
–आनंद उछळी जाय छे..आनंद उछळी जाय छे..
आनंद.. (४)