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माटे निश्चय रत्नत्रयनी आराधना ते ज मुक्तिनो पंथ छे, ने हवे अमे मुनि थईने तेने ज आराधवा
मांगीए छीए.
मुनिना कठण धर्मोनुं पालन आप शी रीते करी शकशो? वस्त्र विना वनजंगलमां रहेवुं, शीयाळानी
कडकडती ठंडी अने उनाळाना धोमधखता ताप सहन करवा, निर्दोष भोजन लेवा, भूमि उपर सूवुं,
लंगोटीमात्र पण वस्त्रनो कटको अंग उपर धरवो नहि; आवा आकरा व्रततप आपनी कुमळी काया
कई रीते सहन करशे, बापा!
कष्टदायक छे? नहि शेठ! आप भूलो छो मुनिदशा कठण नथी, दुःखदायक नथी, ए तो
आनंददायक छे. अहा! मुनिदशा तो चारित्रनुं झरणुं छे, त्यां शांतिनी छोळो ऊछळे छे.
आनंदना हिलोळे झूलतो ने अतीन्द्रियसुखने अनुभवतो आत्मा सुख अने समाधिमां तरबोळ
थई जाय छे, आत्माना अनुभवथी ते तृप्त–तृप्त थई जाय छे. अहा, जैनमार्गनी मुनिदशा ते तो
शूरवीरनो मार्ग छे, कायरनुं त्यां काम नथी. आनंदरस–उपशमरसना समुद्रमां झूलती ते
मुनिदशा धन्य छे..
अमारा जेवा श्रावकोने बहु खबर न पडे; अमारे तो टूंकोने टच हिसाब के कांईक पुण्य दान
करीए तो सुखी थईए, बाकी ऊंडी वात तो आपणा आ शास्त्रीजी जाणे. केम शास्त्रीजी!
शके छे, ने ते व्यवहारधर्मथी ज तेओ मुक्ति पामे छे.
सम्यग्ज्ञानरूप निश्चयधर्म न होय? अने पुण्य–भक्ति–दान–दया तो शुभ राग छे, ते राग वडे शुं कदी
मुक्ति थाय? जैनशासनमां तो रागने बंधनुं कारण कह्युं छे, मोक्षनुं कारण नथी कह्युं.
कर्यो छे, तेमां व्यवहारने धर्मना टेकारूप कह्यो छे.
अवलंबन छोडीने जे निश्चयस्वभावनो आश्रय करे छे तेने उपचारथी व्यवहारनो टेको कह्यो;
परंतु व्यवहारना ज अवलंबनथी लाभ मानीने तेमां जे अटकी जाय छे तेने तो ते व्यवहारना
अवलंबननुं फळ संसार ज छे शास्त्रोमां व्यवहारना अवलंबननुं फळ संसार ज कह्युं छे, ए शुं
तमे नथी जाणता?
तीर्थजात्रा वगेरे शा माटे करे छे?
नथी, मोक्षनुं कारण तो ते वखते तेमने जे शुद्धरत्नत्रय वर्ते छे–ते ज छे. भूमिका मुजब व्यवहार अने
शुभ राग होय पण ते भावो वडे कदी मोक्ष नथी थतो. मोक्ष तो थाय छे अंतरना श्रद्धा–ज्ञान अने
वीतराग चारित्रना बळ वडे, समज्या! अहा! वीतरागी रत्नत्रयनी आराधक मुनिदशा! एनी शी
दशा? मुनिओ तो मुक्तिपुरीना प्रवासी छे..एना दर्शनथी पण आत्माना रोमरोम हर्षथी उल्लसी जाय
छे..वाह, मुनिदशा वाह!
ए परम प्रतापी संतने नीरखी, आनंद उछळी जाय छे
–आनंद उछळी जाय छे..आनंद उछळी जाय छे..