मागशरः २४८४ः९ः
वास जेनो वन उपवनमां, गिरिशिखर के नदी–तटे,
वास एनो चित्तगूफामां, आतम आनंदने रटे..
–आतम आनंदने रटे..आतम आनंदने रटे. आतम.. (४)
कंचन–कामिनीना त्यागी, महा तपस्वी ज्ञानी ध्यानी
कायानी मायाना त्यागी, तिन रतनधारी भंडारी..
–तीन रतनधारी भंडारी....तीन रतनधारी भंडारी....तीन.. (४)
तरणतारण मुनिवरना पावन चरणमां नमुं,
समताधारी सौम्यमुद्रा आनंदधारामां रमुं..
–आनंदधारामां रमुं..आनंदधारामां रमुं..
चाह नहीं आ राज्यनी, चाह नहीं रमणीतणी,
चाह उरमां एक छे बस, शिवरमा वरवा तणी..
–शिवरमा वरवातणी..शिवरमा वरवातणी....शिव...(४)
ए परम दिगंबर मुनिवर देखी, हईडुं हरखी जाय छे..
ए आतमध्यानी संतने नीरखी आनंद उछळी जाय छे.
अहा! परम वीतरागता वडे उल्लसती आवी चारित्रदशा ते ज छे अडोल मुनिपद! बस, हवे तो अमे
आवा मुनिपदने अंगीकार करीने आत्मानी परमसिद्धिने साधशुं.
शेठः– महाराज! आ वैरागी भरत अमारा समजाववाथी रोकाय एम तो लागतुं नथी. हवे तो आप
समजावो ने आपनुं वचन माने तो!
दशरथः– बेटा भरत! बधानी ईच्छा छे तो तुं हाल गृहस्थाश्रममां रहे..गृहस्थपणे रहीने पण मोक्षनुं साधन
करी शकाय छे!
भरतः– पिताजी! पिताजी! आप मने वृथा मोहमां केम फसावो छो? इन्द्रियविषयोथी वशीभूत एवा
गृहस्थाश्रममां तो अनेक प्रकारना काम–क्रोधादि वर्तता होय छे, तेमां मुक्ति क्यांथी होय? पिताजी!
आप पोते पण गृहस्थाश्रम छोडीने जे पवित्र मार्गने अंगीकार करी रह्या छो ते मार्गमां आवतां मने
आप शा माटे रोको छो? जो गृहस्थपणामांय मोक्षसाधन थई शकतुं होय तो आप पोते तेने केम छोडी
रह्या छो? मोक्षने साधवा माटे बाह्य–अभ्यंतर समस्त परिग्रह छोडीने मुनि थया वगर छूटको ज
नथी. हा, एटलुं चोक्कस के गृहस्थपणामांय सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानरूप धर्म होई शके, बहु तो
पंचम गुणस्थानरूप देशचारित्र होई शके, पण मुनिदशा तो गृहस्थपणामां होय नहि, ने मुनिदशा
वगर मोक्ष क्यांथी थाय?
रामः– बंधु भरत! तारी वात तो साची छे, भाई! आपणे सौए अंते तो ए ज मार्ग अंगीकार कर्ये छूटको छे,
परंतु पिताजी तारी माताने वचन आपी चूकया छे, ने पिताजीना वचननुं पालन करवा खातर पण तुं हाल
दीक्षाना विचार छोडी दे. वळी मुनिओने पण बधाने कांई ते ज भवे मुक्ति नथी थती; माटे हाल थोडा
दिवस तमे गृहस्थपणामां रहो ने आ राज्यनुं सुकान संभाळीने पिता–मातानुं वचन पूर्ण करो.
भरतः– भाई, आपे कह्युं ते सत्य छे. जो के बधा ज मुनिओ ते ज भवे मुक्ति नथी पामता, तो पण जे
मुनिवरो महापुरुषार्थ वडे समस्त कर्मोने हणी नांखे छे तेओ ते ज भवे मोक्ष पामी जाय छे, त्यारे
गृहस्थपणामां तो नियमथी मुक्ति थती ज नथी.
रामः– बंधु तमे घणा समजु छो..तमारुं तत्त्वज्ञान पण प्रशंसनीय छे..तमारा ऊछळता वैराग्यनी धारा जोईने
अमने पण घणो ज आनंद थाय छे. परंतु हाल माता–पितानी परिस्थिति जोतां मुनिव्रत धारण
करवानो तमारो विचार थोडा वखत माटे मुलतवी राखो तो सारुं.
भरतः– भाई, आपना कथननो मर्म हुं समजी शकुं छुं. आपनी सलाह योग्य छे, पण संसार प्रत्ये के राजपाट
प्रत्ये मारी रुचि बिलकुल चोंटती नथी. मध्यबिंदुथी जे वैराग्यसमुद्र ऊछळ्यो तेने कोण रोकी शके?
गृहस्थधर्म तो हीनशक्तिवाळाने माटे छे. मारे तो मुनिधर्म आराधवानी ज भावना छे, माटे आप सौ
मने आज्ञा आपो!
दशरथः– पुत्र! धन्य छे तारी भावनाने. तुं भव्योमां प्रधान छे. जिनशासनना रहस्यने जाणीने तारो आत्मा
प्रतिबुद्ध थयेलो छे; तारी वात सत्य छे; हे धीर अने वीर पुत्र! तें मारी आज्ञा कदी भंग करी नथी, तुं
विनयवंत छो; तो मारी एक वात सांभळ.