Atmadharma magazine - Ank 170
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः१०ः आत्मधर्मः १७०
भरतः– कहो शी आज्ञा छे पिताजी! आपनी आज्ञा शिरोमान्य छे.
दशरथः– सांभळ वत्स! युद्धमां कटोकटी वखते सारथीपणुं करीने तारी माताए मने जीताव्यो हतो, त्यारे में
प्रसन्न थईने तेने एक वरदान आप्युं हतुं, पण ते वखते वरदान न मांगतां तेणे मारी पासे ते जमा
राख्युं हतुं. आजे, मारी साथे तने पण दीक्षा माटे तैयार थयेलो जोईने तेने खूब ज आघात थाय छे;
तेथी तने दीक्षा लेतो अटकाववा आजे ते पोतानुं वरदान मांगे छे के “मारा पुत्र भरतने राज्यासन
उपर बेसाडो” मारा वचन अनुसार में ते वरदाननो स्वीकार कर्यो छे, माटे हे पुत्र! तुं आ
राजगादीनो स्वीकार करीने महासाम्राज्यनुं पालन कर, जेथी मारी वचनभंगनी अपकीर्ति जगतमां न
थाय. जो तुं आ वातनो स्वीकार नहि कर तो, एक तो वचनभंगथी जगतमां मारी अपकीर्ति थशे अने
बीजुं तारी माता पण तारा वियोगथी अत्यंत शोकथी दुःखी थईने मरी जशे.
रामः– भरत! भरत! पिताजीनी वातनो तारे अवश्य स्वीकार करवो योग्य छे. पुत्रनी फरज छे के माता–
पिताने शोकसमुद्रमां न पाडतां तेमने सुखी करे. वळी हे बंधु! तारी उंमर हजी तप करवाने योग्य थई
नथी, माटे पिताजीना वचनना पालन खातर तुं आ राज्य स्वीकार, जेथी आपणा कुळनी निर्मळ
कीर्ति जगतमां चंद्रसमान फेलाय. तारा जेवो गुणवान पुत्र होवा छतां माताजी शोकथी संतप्त थईने
मरण पामे–ए शुं तारा माटे योग्य छे? अमे होवा छतां आ राज्यासन उपर बेसवुं–तेमां तने संकोच
थतो होय ते स्वाभाविक छे. परंतु भाई, पिताजीनी दीक्षाबाद अमे आ राजवैभव छोडीने देशांतरमां
के कोई वन–पर्वतमां एवा स्थानमां रहेशुं के कोई अमने न जाणे, माटे तुं निश्चिंतपणे आ राज्यासन
ग्रहण कर.
(एम कहीने रामचंद्रजी भरतनो हाथ पकडी तेने राजगादी पासे लई जाय छे..दशरथ राजा
राजसिंहासन उपरथी ऊभा थईने कहे छे–)
दशरथः– आव, भरत आव! आ राजसिंहासनने शोभाव! शास्त्रीजी! चालो, कुमकुम अने अक्षत वडे
भरतकुमारने राजतिलक करो..
(शास्त्रीजी राजतिलक करे छे. त्यारबाद दशरथ राजा भरतने हाथ झालीने सिंहासन उपर बेसाडीने
कहे छे–)
दशरथः– मंत्रीजी अने नगरशेठ! आजथी आ अयोध्यानगरीना राजसिंहासने हुं भरतने बेसाडुं छुं. हवे ते ज
तमारो राजा छे. बेटा भरत! आजथी आ राज्यनुं सुकान तारा हाथमां छे..प्रजानुं पालन करो..ने तारुं
कल्याण थाओ–एवा मारा आशीर्वाद छे. तुं आ राज्यासनने शोभावीने रघुकुळनी रीतिने उजाळजे..
ने जिनशासननी महाप्रभावना करीने शासनने शोभावजे. वीतरागी जिनमार्गनी झळहळती ज्योतने
वधु ने वधु जवलंत करजे. बस, हवे हुं निश्चिंतपणे आ राजपाट त्यागीने मुनिदीक्षा अंगीकार करवा ने
आत्माना परमपदने साधवा माटे वनमां जाउं छुं.
(दशरथ राजा दीक्षा लेवा जाय छेः पडदो पडे छे.)
(संवादनो पहेलो अंक अहीं पूरो थयो. बाकीनो भाग आवता अंके अपाशे.)