Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २२ः आत्मधर्मः १७२
आत्मा छुं. मारो आत्मा कांई नवो थयो नथी; शरीरनो संयोग नवो थयो छे. आ आत्मा पहेलां (पूर्वभवे)
बीजा शरीरना संयोगमां हतो, त्यांथी ते शरीरने छोडीने अहीं आव्यो,–ए रीते आत्मा तो त्रिकाळ टकनार
तत्त्व छे, ने देह तो क्षणिक संयोगी छे. मारुं स्वरूप तो ज्ञान–आनंदस्वरूप छे, शरीर–इन्द्रियो ते मारुं स्वरूप
नथी, ते तो जडनुं रूप छे; ते शरीरादि साथे मारे वास्तविक कांई संबंध नथी, तेनी साथेनो संबंध तोडीने
ज्ञानानंदस्वरूप साथे ज मारे संबंध जोडवा जेवो छे. मारा चिदानंदतत्त्व सिवाय जगतना कोई पदार्थो साथे मारे
एकतानो संबंध कदी पण नथी.–आम सर्व प्रकारे विचार करीने, अंतर्मुख चित्तथी ज्ञानानंदस्वरूप पोताना
आत्मानो निर्णय करवो ने देहादिकने पोताथी बाह्य–भिन्न जाणवा, ते सिद्धांतनो सार छे. आवी रीते
ज्ञानानंदस्वरूपनी ओळखाण करीने तेमां एकाग्रतावडे परमात्मा थवानो प्रयत्न करवो जोईए. आ देह तो जड
छे, ते देहमांथी कांई परमात्मदशा नथी आवती, परमात्मदशा तो आत्मामांथी आवे छे; देहथी भिन्न आवा
आत्माने जाणीने तेमां एकाग्रतावडे परमात्मदशा थाय छे, माटे देहमां आत्मबुद्धि छोडीने, अंतरना
आत्मस्वरूपनी श्रद्धाथी अंतरात्मा थईने, परमात्मा थवानो उद्यम करवा योग्य छे.
।। १३ ।।
हवे चौदमी गाथामां आचार्यदेव करुणाबुद्धिथी कहे छे के अरे! ज्ञानानंदस्वरूप पोताना आत्माने चूकीने
आ जगत बहारमां देहने ज पोतानो मानीने तथा स्त्री–पुत्र–संपत्ति वगेरे बाह्य पदार्थोने पण पोताना मानीने
निंदनीय प्रवृत्ति करे छेः ‘
हा हतं जगत्!’ अरे! खेद छे के पोतानी चैतन्य समृद्धिने भूलेलुं आ
जगत बाह्य संपत्तिमां मूर्छाई पडयुं छे! पोते बहिरात्मबुद्धिना अनंत दुःखथी छूटीने
चिदानंद तत्त्वने जाण्युं छे, अने जगतना जीवो आत्माने जाणीने बहिरात्मबुद्धिना
अनंत दुःखथी छूटे एवी करुणाबुद्धिथी पूज्यपादस्वामी कहे छे के–
देहेष्वात्मधिया जाताः पुत्रभार्यादिकल्पनाः।
सम्पत्तिमात्मनस्ताभिर्मन्यते हा! हतं जगत्।।१४।।
देहमां आत्मबुद्धिने लीधे आ मारो पुत्र, आ मारी स्त्री, आ मारो पति, आ मारा मातापिता–एवी कल्पना
बहिरात्माने थाय छे, तेमज बहारमां प्रत्यक्ष जुदा देखाता घर–दागीना–लक्ष्मी–वस्त्र वगेरे संपत्तिने आत्मानी माने
छे–‘
हा हतं जगत
!’
अरे! जगत बिचारुं भ्रमणाथी ठगाई रह्युं छे. खेद छे के चैतन्यनी
आनंदसंपदाने भूलीने जगतना बहिरात्म जीवो बहारनी संपत्तिने ज पोतानी मानीने
हणाई रह्या छेः आत्मानी सुध–बुध भूलीने आ जगत अचेत जेवुं थई गयुं छे, तेने
देखीने संतोनी करुणा आवे छे.
देहने आत्मा मानवो ते भ्रमणा छे. ते भ्रमणा मिथ्यात्व छे, मिथ्यात्व ते मोटो
कषाय छे, ते कषायरूपी होळीमां बहिरात्माओ सळगी रह्या छे, शांतस्वरूप चैतन्यने
भूलीने कषाय अग्निमां बळजळीने बिचारा दुःखी थई रह्या छे, अरेरे! तेओ ठगाई
रह्या छे...भावमरणमां मरी रह्या छे, माटे अरे जीवो! तमे समजो के देहादि बाह्य पदार्थो
आत्माना नथी, आत्मा तो तेमनाथी जुदो ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे; आवा आत्माने
जाण्ये–मान्ये–अनुभव्ये ज दुःख टळीने शांति–समाधि थाय छे.