Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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माहः २४८४ः २१ः
‘देह ज हुं छुं’–एवो देहाध्यास जो छूटी जाय एटले के देहथी पार हुं चिदानंदस्वभाव ज छुं–एवुं जो
सम्यक्भान थाय तो ते आत्मा देहादिनो के कर्मोनो कर्ता थतो नथी, तेमज तेना फळनो भोक्ता पण थतो नथी, ते तो
पोताना आत्माने देहादिथी तथा कर्मोथी भिन्न जाणीने, पोताना ज्ञानभावनो ज कर्ता–भोक्ता थाय छे.–ने ते ज धर्म
छे; माटे पहेलां यथार्थ भेदज्ञान करवानो उपदेश छे.
(वीर सं. २४८२ जेठ सुद त्रीज)
आत्माने अनादिकाळथी केम अशांति छे ने शांति केम मळे–ते वात चाले छे.
ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मा छे, ते शरीरथी जुदो ज्ञाताद्रष्टा छे; आत्मा शरीरनो जाणनार छे पण पोते शरीर
नथी. छतां अज्ञानी एम माने छे के हुं ज शरीर छुं, शरीर मारुं छे.–आवी भ्रमबुद्धिने लीधे ते चैतन्यमां एकाग्र थतो
नथी, पण देहनी ममताथी फरी फरीने नवा नवा शरीरो धारण कर्या करे छे, ने शरीरना लक्षे दुःखी–अशांत थई रह्यो
छे. तेने आचार्यदेव समजावे छे के अरे जीव! आ शरीर तुं नथी, तुं तो चैतन्यस्वरूपी अरूपी छो; देहथी भिन्न तारा
स्वरूपने जाण तो तने शांति थाय. देहबुद्धिने लीधे अज्ञानी एम माने छे के हुं काळो, हुं धोळो, मने ठंडी थई, मने
गरमी थई, मने रोग थयो;–एम देहनी अवस्थाओने ज आत्मा माने छे. ठंडुं–गरम तो शरीर थाय छे, आत्मा कांई
ठंडो–गरम थतो नथी, आत्माने तो तेनुं ज्ञान थाय छे, त्यां पोताना ज्ञानने देहथी जुदुं न जाणतां, एकाकार मानीने
पोताने ज ठंडी–गरमी वगेरे थवानुं माने छे. आ रीते जड शरीरमां ज मूर्छाई गयो छे ते असमाधि छे; ने चैतन्यमां
सावधानी ते समाधि छे.
एक बाजु चैतन्यमूर्ति आनंदस्वरूप आत्मा;
बीजी तरफ अचेतन जड शरीर.
आम बे भाग पाडीने भेदज्ञान कर्युं छे. शरीर अने शरीर साथेना संबंधी बधाय परद्रव्यो ते मारा आत्माथी
बहार छे, अने चिदानंदस्वरूप आत्मा ते एक ज मारुं अंर्ततत्त्व छे,–आम निजस्वरूपने न जाण्युं ने शरीरने पोतानुं
मान्युं त्यां अज्ञानीने बहारमां परद्रव्यो साथे संबंध लंबाणो, ने संसार ऊभो थयो.
आ शरीरने तो ‘भवमूर्ति’ कीधी छे. आत्मा चिदानंदस्वरूप छे ते आनंदनी मूर्ति छे, ने आ देह तो भवनी
मूर्ति छे; तेथी जेने ते शरीरनी रुचि छे ते जीव दीर्घ काळ सुधी भवभ्रमण करे छे. अरे! परम शुद्ध भवरहित आ
भगवान आत्मानी प्रीति छोडीने मूढ जीवो जड शरीरनी प्रीति करीने तेमां सुख मानी–मानीने जड साथे जोडाण करे
छे. आत्मा साथे दुश्मनावट करीने आत्माथी विरुद्ध एवा जड शरीर साथे मित्रता (एकताबुद्धि–देहाध्यास) करे छे, ते
ज भवभ्रमणनुं मूळ छे. अनंतगुणस्वरूप आत्मानुं अस्तित्व चूकीने जेणे देहमां ज पोतानुं अस्तित्व मान्युं ते जीव
देहाध्यासने लीधे अनंत शरीरो धारण करशे.
हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा, जाणवानी क्रियानो ज कर्ता छुं, शरीर तो जड छे ते हाले–चाले छतां तेनामां
जाणवानी क्रिया नथी. जाणवानी क्रिया तो मारी ज छे–एम जाणवानी क्रियास्वरूप पोताना आत्माने देहथी भिन्न
ओळखे तो देहाध्यास छूटी जाय, ने अल्पकाळे तेने देहरहित सिद्धपद प्रगटे.
आवो मनुष्य अवतार पामवो अनंतकाळे दुर्लभ छे. आवो मनुष्य अवतार पामीने अरे जीव! तुं विचार तो
कर के “हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? ने मारुं वास्तविक स्वरूप शुं छे? कोनी साथे मारे संबंध छे?”–
“हुं कोण छुं? क्यांथी थयो?
शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे?
राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकभावे
शांतचित्ते जो कर्या
तो सर्व आत्मिकज्ञाननां
सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्यां.”
(– श्रीमद् राजचंद्र)
‘हुं कोण छुं?’–आ देह तो हमणां थयो, खोराक–पाणीथी ते ढींगलुं रचाणुं, हुं ते नथी, हुं तो