Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १७२
जडने ज आत्मा माने छे एटले शरीरने ज आत्मा माने छे. ऊंधी मान्यताथी ‘शरीर ते ज हुं छुं’ एवा
विभ्रमने लीधे अज्ञानीने अविद्याना द्रढ संस्कार एवा थई जाय छे के ज्यां ज्यां जाय त्यां त्यां शरीरमां ज
आत्मबुद्धि करे छे. मनुष्य शरीर मळ्‌युं त्यारे ‘हुं ज मनुष्य छुं, हुं तिर्यंच नथी’ एम माने छे, पण ज्यां
तिर्यंच शरीर मळ्‌युं त्यां अविद्याना संस्कारने लीधे एम माने छे के हुं ज तिर्यंच छुं.–ए रीते जे जे शरीरनो
संयोग मळ्‌यो ते ते शरीरने ज पोतानुं स्वरूप माने छे. पण हुं तो अनादिअनंत टकनारो चैतन्यमूर्ति छुं,
शरीररूप हुं कदी थयो ज नथी–एम अज्ञानी जाणतो नथी. शरीरने ज जीव माने छे एटले शरीर छूटतां जाणे
जीव ज मरी गयो–एम अज्ञानीने भ्रम थाय छे. अज्ञानीने जे अविद्याना संस्कार छे ते पोताना भ्रमने लीधे
ज छे, कोई कर्मने लीधे के बीजाने लीधे नथी. अहीं तो एम बताववुं छे के अरे भाई! भ्रमथी देहने ज आत्मा
मानीने तुं अत्यार सुधी अनंत जन्म–मरणमां रखडयो, हवे देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्माने जाणीने ए
भ्रमबुद्धि छोड..बहिरात्मदशा छोड..ने अंतरात्मा था.
“शरीरे सुखी तो सुखी सर्व वातो” एवी जेनी मान्यता छे ते पण देहने ज आत्मा माने छे. अरे
मूढ! शरीर तो जड छे, ते जडमां शुं तारुं सुख छे! शरीर निरोग होय छतां अंदर मोहने लीधे जीव दुःखी थई
रह्यो छे. शरीर ते हुं एवी मान्यता ते ज अनादिनो भ्रमणारोग छे; ते रोग टळीने निरोगता केम थाय तेनी
आ वात छे. देह हुं नथी, हुं तो चैतन्य छुं, देहनी निरोगताथी मने सुख नथी के देहना रोगथी मने दुःख नथी,
हुं तो देहथी पार अतीन्द्रिय चैतन्य छुं– आवा चैतन्यनुं भान करे तो मिथ्या मान्यतारूपी रोग टळे, ने
सम्यग्दर्शन आदि निरोगता प्रगटे छे–ते ज सुख छे.
देह ते हुं–एवी वासनानी गंध जीवने बेसी गई छे एटले देहनां कार्योने ज पोतानां कार्यो मानीने अज्ञानी वर्ते
छे; पण चैतन्यनी गंध–(रुचि) अंदरमां बेसाडतो नथी. देहादि छेदाय के भेदाय, रहो के जाओ पण ते हुं नथी, शरीर
छेदाव के भेदाव तेथी हुं कांई छेदातो–भेदातो नथी, देहना वियोगे मारो नाश थतो नथी, हुं तो चैतन्यस्वरूप असंयोगी
शाश्वत छुं–आवी भेदज्ञाननी भावनाथी आत्मज्ञान करे तो अविद्याना संस्कारनो नाश थई जाय छे. जेम कूवा उपरना
काळा पथ्थरा पर दोरीना वारंवार घसाराथी घसाई–घसाईने लीसा थई जाय छे, तेम देहथी भिन्न चिदानंद तत्त्वनी
वारंवार भावनाना अभ्यासथी अनादि अविद्याना संस्कारनो नाश थईने भेदज्ञान थाय छे,–अपूर्व ज्ञानसंस्कार प्रगटे
छे.
।। १२ ।।
देह ते ज हुं–एवी मिथ्याबुद्धिने लीधे अज्ञानी फरीफरीने देहने ज धारण करे छे, अने ज्ञानी तो देहथी भिन्न
चिदानंद तत्त्वने जाणता थका देहने धारण करता नथी. आ रीते बहिरात्मा अने अंतरात्माना कार्यनो भेद बतावे छे–
देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात्।
स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनं।।१३।।
देहमां ज स्वबुद्धि राखनार बहिरात्मा पोताने फरी फरीने शरीर साथे जोडीने,–नवा नवा शरीर धारण करीने,
संसारमां रखडे छे. अने पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि राखनार अंतरात्मा पोताना आत्माने शरीरथी भिन्न करी
नांखे छे. आ रीते बहिरात्माने शरीरबुद्धिनुं फळ संसार छे, ने अंतरात्माने आत्मबुद्धिनुं फळ मोक्ष छे. जेम लोकोमां
एम कहेवाय छे के चूडेल–डाकणने जो बोलावीए तो ते वळगे छे, ने बोलावो तो ते चाली जाय छे, तेम आ शरीररूपी
चूडेल छे, ते शरीरने जे पोतानुं माने छे तेने ज ते वळगे छे एटले के शरीर ते हुं एवी मिथ्याबुद्धिने लीधे ज जीव
संसारमां नवा नवा देह धारण करीने जन्म–मरण करे छे. देहने पोताथी भिन्न जाणीने, चिदानंदस्वरूप आत्माने जे
सेवे छे–तेने मोक्ष थतां शरीर छूटी जाय छे,–फरीने देहनो संयोग थतो नथी. अशरीरी आत्माने चूकीने शरीरने जेणे
पोतानुं मान्युं ते ज चार गतिमां परिभ्रमण करे छे. पण अशरीरी चैतन्यस्वभावने ओळखीने तेने जे आराधे छे ते
अशरीरी सिद्ध थई जाय छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के–
“छूटे देहाध्यास तो नहि कर्ता तुं कर्म,
नहि भोक्ता तुं तेहनो ए ज धर्मनो धर्म.”