Atmadharma magazine - Ank 172
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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माहः २४८४ः १९ः
जईश’–एम माने छे, एटले मृत्युनो भय तेने सदाय रह्या ज करे छे. पण हुं तो ज्ञानस्वरूप असंयोगी छुं,
शरीर जड छे, तेना संयोग–वियोगे मारी उत्पत्ति के नाश नथी एम अज्ञानी जाणतो नथी. वळी शरीरने ज
आत्मा मान्यो एटले शरीरने पोषनारा पांच इन्द्रियना विषयभोगोने ते सुखकारी माने छे, तेथी बाह्य
विषयोथी ते खसतो नथी ने चैतन्य सुखने जाणतो नथी; विषयोना रसने लीधे चैतन्यना आनंदरसने चूकी जाय
छे, अने बाह्यमां प्रतिकूळता आवे– रोगादि थाय–त्यां पोताने दुःखी माने छे. आ रीते एकला बाह्यसंयोगथी ज
पोताने सुखी–दुःखी मानीने तेमां ज राग –द्वेष–मोहथी प्रवृत्ति करे छे, अंतर्मुख वळतो नथी.–आवो बहिरात्मा
छे. खरेखर कोईपण संयोग आत्माना उपकारी नथी, ते आत्मीय वस्तु नथी छतां मोहने लीधे बहिरात्मा तेने
आत्मीय मानीने उपकारी माने छे. ज्यां अनुकूळ संयोग मळे त्यां तेमां ज सुख मानीने संतुष्ट थई जाय छे–
रागमां लयलीन थई जाय छे, अने ज्यां तेनो वियोग थाय ने प्रतिकूळता आवे त्यां महा संताप करे छे–शोकमां
तल्लीन थई जाय छे; पण राग–द्वेषना चक्करथी छूटीने चैतन्यनी शांतिमां आवतो नथी. देहादि संयोगथी भिन्न
मारुं चैतन्यतत्त्व छे–एम जो ओळखे तो बधा संयोगमांथी राग–द्वेषनो अभिप्राय छूटी जाय, ने चैतन्यनी
अपूर्व शांति थई जाय. ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा सिवाय पुण्य–पापथी के बाह्य–संयोगथी पोताने जे ठीक माने छे
ते बहिरात्मा छे, ते बहारमां ज पोतानुं अस्तित्व माने छे, पोताना चैतन्यना भिन्न अस्तित्वने ते जाणतो
नथी. देह ते ज हुं, ने देहना संबंधी ते बधाय मारा संबंधी–एवो द्रढ अभिप्राय अज्ञानीने घूंटाई गयो छे;
एटले पर साथेनो संबंध तोडीने पोताना स्वभाव साथे संबंध करतो नथी–अर्थात् सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान करतो
नथी, तेथी तेने समाधि थती नथी.
शुद्ध ज्ञान ने आनंदस्वरूप ज हुं छुं, ए सिवाय बीजा बधाय माराथी बर्हिभावो छे, ते हुं नथी,–आवुं
भेदज्ञान करनार ज्ञानी अंतरात्मा छे. बाह्यचीजने ते स्वप्नेय पोतानी मानता नथी एटले चैतन्यने चूकीने
बाह्यचीजमां एकताबुद्धिथी राग–द्वेष तेने थता नथी. अज्ञानी तो आत्माने देहादि बाह्य स्वरूप ज माने छे, देह
अने इन्द्रियो तथा बाह्य विषयोने ते हितरूप माने छे तेथी ते बाह्य पदार्थोनी प्रीति छोडीने चैतन्य तरफ केम
वळे? जेने हितरूप माने तेनो प्रेम केम छोडे? ज्ञानी कदी चैतन्यनो प्रेम छोडता नथी, ने अज्ञानी बाह्य
विषयोनो प्रेम छोडतो नथी. जेणे अंतरना चैतन्य स्वभावने ज सुखरूप जाण्यो छे ते अंतरात्मा छे; ने बाह्य
विषयोमां जे सुख माने छे ते बहिरात्मा छे. आम जाणीने बहिरात्मपणुं छोडीने अंतरात्मा थवा माटे आ
उपदेश छे.
।। ११।।
(वीर सं. २४८२ जेठ सुद बीजः समाधिशतक गा. १२)
आ आत्मा तो चैतन्यस्वभावी सूर्य छे, देहथी भिन्न छे, तेने न जाणतां, शरीर ते ज आत्मा छे–एम
अज्ञानीने विभ्रम थई गयो छे. ते विभ्रमने लीधे शुं थाय छे ते कहे छे –
अविद्यासंज्ञितस्तस्मात्संस्कारो जायते द्रढः।
येन लोकोड्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते।।१२।।
देह ते ज हुं छुं–एवा विभ्रमने लीधे ते बहिरात्माने अविद्याना संस्कार द्रढ थई जाय छे अने तेथी ज्यां ज्यां
जाय त्यां त्यां सर्वत्र पोताने शरीररूपे ज माने छे. अविद्याना संस्कार कोई परने लीधे के कर्मने लीधे थाय–एम नथी
पण पोतानी विभ्रमबुद्धिने लीधे ज अविद्याना संस्कार छे. चिदानंदस्वरूपने न जाण्युं ने देहने ज आत्मा मान्यो ते जीव
भले गमे तेटला शास्त्रो ने गमे तेटली विद्या भण्यो होय तो पण तेने अविद्या ज छे. चेतन अने जडनुं भेदविज्ञान
ज्यां न कर्युं त्यां अविद्या ज छे. अने भले शास्त्रो न भण्यो होय,–अरे! तिर्यंच होय, तो पण जो अंतरमां
चैतन्यस्वरूप पोताने देहथी भिन्न जाणे छे तो ते सम्यक् विद्यावाळो छे, तेने अनादिना अविद्याना संस्कार छूटी गया
छे..ते अंतरात्मा छे..धर्मात्मा छे..मोक्षना पंथी छे.
जुओ, मोक्षशास्त्र उपर सर्वार्थसिद्धि जेवी महान टीका करनारा श्री पूज्यपादस्वामी अहीं स्पष्ट कहे छे के,
विभ्रमने लीधे ज आत्माने अविद्याना संस्कार द्रढ थया छे; कर्मने लीधे के परने लीधे अविद्या थई एम नथी. कर्म
आत्माने विकार करावे एम माननार पण