Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष १प मुं
अंक ६ ठ्ठोे
चैत्र
वी. सं. २४८४
संपादक
रामजी माणेकचंद शाह
१७४
मोक्षनी रीत
जेने मोक्ष प्रिय होय तेने मोक्षनुं कारण प्रिय होय, ने बंधनुं
कारण तेने प्रिय न होय. हवे मोक्षनुं कारण तो आत्मस्वभावमां
अंतर्मुख वलण करवुं ते ज छे, ने बहिर्मुख वलण तो बंधनुं ज कारण
छे; माटे जेने मोक्ष प्रिय छे एवा मोक्षार्थी जीवने अंतर्मुख वलणनी ज
रुचि होय छे, बहिर्मुख एवा व्यवहारभावोनी तेने रुचि होती नथी.
पहेलां अंतर्मुख वलणनी बराबर रुचि जामवी जोईए–पछी
भले भूमिकानुसार व्यवहार पण होय, पण धर्मीने–मोक्षार्थीने ते
आदरवारूपे नथी, पण ते ज्ञेयरूपे ने हेयरूपे छे. आदर अने रुचि तो
अंतर्मुख वलणनी ज होवाथी, जेम जेम ते अंतर्मुख थतो जाय छे तेम
तेम बहिर्मुख भावो छूटता जाय छे. आ रीते निश्चय स्वभावमां
अंतर्मुख थतां बहिर्मुख एवा व्यवहारनो निषेध थई जाय छे.–आ ज
मोक्षनी रीत छे.
(स. गा. २७२ प्रवचनमांथी)