Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ४ः आत्मधर्मः १७४
“अपूर्व पुरुषार्थ वडे सर्वज्ञनो स्वीकार”
त्यांथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे
सर्वज्ञतानो निर्णय करवामां केवो अपूर्व पुरुषार्थ छे
अने अंतर्मुख थईने ते निर्णय करनारने पोताना
आत्मामांथी केवी निःशंकता आवी जाय छे, तेनुं
आत्मस्पर्शी अद्भुत वर्णन पू. गुरुदेव अनेकवार करे छेः
अहीं पण ते बाबतमां गुरुदेव कहे छे के–“पहेलां नक्की
करो के आ जगतमां सर्वज्ञताने पामेला कोई आत्मा छे के
नहि? जो सर्वज्ञ छे, तो तेमने ते सर्वज्ञतारूपी कार्य कई
खाणमांथी आव्युं? चैतन्यशक्तिनी खाणमां सर्वज्ञतारूपी
कार्यनुं कारण थवानी ताकात पडी छे. आवी
चैतन्यशक्तिनी सन्मुख थईने सर्वज्ञनो स्वीकार करतां
अपूर्व पुरुषार्थ तेमां आवे छे. ‘सर्वज्ञनो स्वीकार करतां
पुरुषार्थ ऊडी जाय छे’ एम माने तेने तो घणी मोटी
स्थूळ भूल छे. केवळज्ञान अने तेना कारणनी प्रतीत
करतां स्वसन्मुख अपूर्व पुरुषार्थ ऊपडे छे, ते जीव
निःशंक थई जाय छे के मारा आत्माना आधारे सर्वज्ञनी
प्रतीत करीने मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ में शरू कर्यो छे, ने
सर्वज्ञना ज्ञानमां पण ए ज रीते आव्युं छे..हुं
अल्पकाळमां मोक्ष पामवानो छुं ने भगवानना ज्ञानमां
पण एम ज आव्युं छे.
अहा, सर्वज्ञतारूप कार्यनुं जे कारण थाय–तेना महिमानी शी वात! एकला केवळज्ञाननुं नहि पण केवळज्ञाननी
साथे साथे केवळदर्शन, अनंत आह्लाद, क्षायिक श्रद्धा, अनंत वीर्य–ए बधानुं कारण थवानी आत्मामां ताकात छे.
केवळज्ञानी अर्हंत परमात्मानी प्रतीत करनारने आत्मानी आवी ताकात प्रतीतमां आवी ज जाय छे. केम के कार्यनी
प्रतीत करवा जतां तेना कारणनी प्रतीत पण भेगी आवी ज जाय छे. “कार्यमां आटली ताकात प्रगट थई तो तेना
कारणमां पण तेटली ताकात पडी ज छे” एम कार्य–कारणनी प्रतीत एक साथे ज थाय छे. कारणना स्वीकार वगर
कार्यनी प्रतीत थती नथी. कारण अने कार्य ए बेमांथी एकमां पण जेनी भूल छे तेने बंनेमां भूल छे.
लोको “केवळज्ञान..केवळज्ञान” कहे छे, अमारा भगवान सर्वज्ञ हता–केवळज्ञानी हता एम कहे छे, पण
खरेखर तेने ओळखता नथी. अहा, अचिंत्य सामर्थ्यवाळुं केवळज्ञानरूपी पूर्ण कार्य जेमांथी आव्युं ते कारण केवुं छे?
एने जो ओळखे तो अपूर्व सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान थाय.