Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आत्मधर्म
वर्ष पंदरमुं संपादक चैत्र
अंक छठ्ठो रामजी माणेकचंद दोशी २४८४
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति
बुद्धिमान जनोए भगवान सर्वज्ञदेवने पूजवा योग्य छे, केमके भगवान सर्वज्ञदेवे मोक्षनो मार्ग दर्शाव्यो छे;
आ रीते भव्य जीवो उपर सर्वज्ञ भगवाननो उपकार छे...ने सत्पुरुषो करेला उपकारने भूलता नथी. भगवान
सर्वज्ञदेवनो उपदेश झीलीने, अंतर्मुख थईने जे जीव मोक्षमार्ग पाम्यो ते जीव विनय अने बहुमानपूर्वक भगवानना
उपकारने प्रसिद्ध करे छे के अहो! भगवानना प्रसादथी अमने मोक्षमार्ग मळ्‌यो. भगवाननी कृपाथी–भगवाननी
महेरबानीथी अमने मोक्षमार्गनी प्राप्ति थई...भगवाने ज प्रसन्न थईने अमने मोक्षमार्ग आप्यो. आ रीते पोतानी
उपर करायेल उपकारने सत्पुरुषो भूलता नथी. आमां पण खरेखर तो पोते ज्यारे अंतर्मुख थईने मार्गनी प्राप्ति करी
त्यारे ज खरा उपकारनो भाव आवे छे.
अंर्त स्वभावनी सन्मुखता करावे ने परथी विमुखता करावे–उपेक्षा करावे, एवो उपदेश ते ज खरो हितोपदेश
छे; आवो हितोपदेश जे संतोए आप्यो ते संतोना उपकारने मुमुक्षु–सत्पुरुषो भूलता नथी. भगवाने अने संतोए शुं
उपदेश आप्यो?–शांतिनो उपदेश आप्यो. हे जीव! स्वभाव तरफ जवाथी ज तने शांति थशे, बहारना लक्षे शांति नहि
थाय; शुभरागरूप व्यवहार ते पण परना आश्रये थतो बहिर्लक्षीभाव छे, ते कांई शांतिनो दातार नथी, अंतर्मुख
वलणवाळो स्वाश्रित भाव ज शांतिनो दातार छे, अहा! आवो उपदेश झीलीने जे अंतर्मुख थयो ते मुमुक्षु, ते
उपदेशना देनारा संतोना उपकारने भूलतो नथी.
जीवने हितनो उपाय सम्यग्ज्ञान छे; ने ते सम्यग्ज्ञाननो उपदेश भगवाननी वाणीमां आव्यो छे, तेथी
भगवाननो उपकार गणीने, सत्पुरुषोने भगवान पूज्य छे. अहा! जगतना मुमुक्षु जीवो उपर सर्वज्ञ भगवाननो
महाउपकार छे, भगवाननी कृपा छे, भगवानना प्रसादथी ज जीवोने सम्यग्ज्ञान प्राप्त थाय छे, भगवाननी
प्रसन्नताथी ज सम्यक् चारित्र थाय छे. आ रीते सम्यग्ज्ञानादि हितनो उपाय पामवामां भगवाननो उपकार छे,
ज्ञानीओ ते उपकारने भूलता नथी. ज्ञानमां निमित्त केवुं छे तेने बराबर जाणीने विनय करे छे.
भगवानने कांई प्रसन्नतानो विकल्प नथी, परंतु साधक जीव पोतानी प्रसन्नतानो आरोप करीने कहे छे के
‘अहा, भगवान मारा उपर प्रसन्न थया, भगवानना प्रसादथी मने मोक्षमार्ग मळ्‌यो.’–आवा विनयनो मार्ग छे. जो
के भगवान तरफनो विकल्प पण बंधनुं कारण छे, एम साधक धर्मात्मा जाणे छे, तो पण धर्मीने एवा बहुमाननो भाव
आवे छे, केमके सत्पुरुषो करेला उपकारने भूलता नथी.
जे अज्ञानी रागने धर्म माने छे तेणे वीतरागनो वीतरागी उपदेश झील्यो नथी, ने तेथी तेना उपर खरेखर
वीतरागनी कृपा के–वीतरागनो उपकार नथी; अने तेने पण वीतराग प्रत्ये खरी (ओळखाणपूर्वकनी) भक्ति आवती नथी.
भगवान अंतर्मुख थईने वीतराग थया; भगवानना श्रीमुखथी वीतरागवाणी नीकळी, ते वीतरागतानो ज
उपदेश आपे छे. ते उपदेश झीलीने जे जीव वीतरागमार्गे वळ्‌यो ते वीतरागना उपकारने भूलतो नथी.
भगवानने पूर्वे साधकपणामां वीतरागताना विकल्पो घोळाता, तेना निमित्ते बंधायेली वाणीमां पण वीतरागी
बोधनो धोध वहे छे. जे भव्य अंतर्मुख थईने वीतरागता तरफ आव्यो तेणे ज वीतरागनी वाणी झीली छे ने तेना
उपर ज वीतरागनो उपकार छे; ते सत्पुरुषने वीतराग प्रत्ये विनय–भक्ति–बहुमाननो भाव आव्या विना रहेतो
नथी..केम के–
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति
(नियमसार गा. ६ना कलश उपरना प्रवचनमांथी)