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हमणां मारो नाश थई जशे”–एवा अज्ञानथी तीव्र भय पामीने महादुःखी थाय छे, त्यारे,
नित्यज्ञानानंद स्वरूपनी भावना भावनार ज्ञानी तो निर्भय छे के मारा ज्ञानानंदस्वरूपने
ज्ञानानंदस्वरूपनी भावनापूर्वक ज्ञानीने समाधान वर्ते छे. कदाचित भयने लीधे रागद्वेष थई
आवे तोपण ज्ञानानंदस्वरूपनी भावना खसीने तो रागद्वेष तेने थता ज नथी, तेथी तेना
लीधे हिंमतपूर्वक सामी छातीए बंदूकनी गोळी झीलतो होय तोपण, नित्यज्ञानानंदस्वरूपनी
भावना नहि होवाथी ने देहादि परद्रव्योमां आत्मबुद्धि होवाथी, तेना अभिप्रायमां रागद्वेषनुं
आधार छे. ज्ञानीनी भावनानुं वलण आत्मस्वभाव तरफ झूके छे, ते भावना आनंदनी जननी
छे ने भवनी नाशक छे. अनित्य, अशरण वगेरे बारे प्रकारनी वैराग्यभावनाओनो झूकाव तो
विरक्त थईने, नित्यज्ञानानंदस्वभावमां वळवुं–ते ज खरुं अनित्यभावनानुं तात्पर्य छे. अने
आ रीते स्वभाव तरफना झूकावपूर्वक वैराग्यभावनाओना चिंतनथी धर्मात्माने आनंद वधतो
माटे आनंदना अभिलाषी जीवोने वस्तुस्वरूपना लक्षपूर्वक ए भावनाओ भाववा जेवी छे.
करे छे. सरळ वीतरागी मोक्षमार्गने बदले, विपरीत मार्ग माने (रागने मोक्षमार्ग माने) तो ते अनंती माया छे–
धर्मनी आडोडाई छे. अने रागने हितरूप जाणीने तेने जे राखवा मांगे छे तेने अनंत लोभ छे. आत्माना
चिदानंदस्वभावनुं भान थतां रागमां आत्मबुद्धि छूटी जाय छे, तेनो आदर छूटी जाय छे, एटले सम्यक्भान थतां ज
अनंतानुबंधी क्रोध–मान–माया–लोभ छूटी जाय छे. सम्यग्दर्शन वगरना बधा साधन थोथां छे. एक सेकंडनुं
सम्यग्दर्शन अनंत जन्ममरणने छेदी नांखे छे. ए सम्यग्दर्शन वगर अनंतकाळथी बीजां साधनो कर्या, शुभराग करीने
अनंतवार स्वर्गमांय गयो. पण संसार–परिभ्रमणथी तेनो छूटकारो न थयो; केम के धर्मनी वास्तविक रीत तेणे जाणी
नहि. माटे प्रथम धर्मनी वास्तविक रीत शुं छे ते जाणवी जोईए. भगवान्! तारो आत्मा ज सर्वज्ञ थवाने लायक छे,
एक वार ते वात श्रद्धामां तो ले, तेने विश्वासमां तो ले; चैतन्यनो विश्वास करतां अल्पकाळमां भवभ्रमणथी छूटीने
परमात्मपद प्रगटी जशे. चैतन्यनो विश्वास करीने परम कल्याणरूप एवुं सम्यग्दर्शन जेणे प्रगट कर्युं ते जीवने पोतामां
धर्मनो अवतार थयो ने तेणे ज भगवानना जन्मकल्याणकने परमार्थे ऊजव्यो, ते जिनेश्वर भगवाननो नंदन थयो.