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अंक सातमो रामजी माणेकचंद दोशी २४८४
जे अन्यवश नथी एटले के रागने वश नथी पण स्ववश छे एटले के मात्र निज
स्वभावमांथी खसीने पराश्रये जे रागादि थाय ते तो परवशपणुं छे, ते सामायिक नथी,
आवश्यक नथी, निश्चयथी करवा जेवुं ते कार्य नथी. चैतन्यस्वरूप आत्मामां एकाग्रताथी
स्ववशपणे उत्पन्न थतुं जे वीतरागी सामायिक ते मोक्षनुं कारण छे, ते मुनिओनुं आवश्यक
कर्म छे. आत्मस्वभावमां स्थिरतारूप आ सामायिकधर्म ते सकळ कर्मनो क्षय करवामां कुशळ
छे, ने ते ज निर्वाणनो प्रसिद्ध मार्ग छे. शुद्धचैतन्यपदना निर्दोष आसन उपर आरूढ थईने जे
जीव आवुं सामायिक करे छे तेने निर्विकल्प आत्मसुखनुं वेदन थाय छे, ते साक्षात् धर्म छे...आ
सिवाय बहारना पाथरणामां, देहनी स्थिरतामां, वचनमां के शुभरागमां क्यांय सामायिक
रहेती नथी. सामायिक तो जैनज्योति छे, चैतन्यज्योतमां स्थिरता वगर ए वीतरागी
जैनज्योति (सामायिक) प्रगटे नहि, ने एवी सामायिक वगर मुक्ति थाय नहि. मोक्षनो मार्ग
“सामायिक” छे,–ते आत्माना ज आश्रये रचायेलुं छे एटले के स्ववश छे, अन्यवश नथी.
शुं वचननी क्रियाने वश सामायिक छे? ना.
तो शुं शुभरागने वश सामायिक छे?–तेनी पण ना.
तो सामायिक कोने वश छे? सामायिक स्ववश छे, एटले के पोताना आत्मस्वभावने
पमाडवानी ताकात छे, वच्चे व्यवहारमार्ग (राग) आवे ते कांई कर्मक्षय करवामां के मोक्ष
प्राप्त करवामां कुशळ नथी, ते तो कर्मनुं बंधन करनार छे; तेनामां कर्मनो क्षय करीने मोक्ष
पमाडवानी ताकात नथी. माटे शुद्ध आत्माने आश्रये वर्ततुं स्ववश सामायिक ज आवश्यक छे–
ते ज मोक्षने माटे अवश्य करवा जेवुं कार्य छे; तेने ज जिनशासनना संतोए निर्वाणनो मार्ग
कह्यो छे. – (नियमसार कळश २३८ना प्रवचनमांथी)