वर्ष १प मुं
अंक ८ मोे
जेठ
वी. सं. २४८४
संपादक
रामजी माणेकचंद शाह
१७६
जिनशासननुं हार्द
जिनशासनमां गमे ते प्रकारे गमे ते पडखेथी वात ल्यो पण तेनो साव तो आ ज छे
के पराश्रित परिणमन छोडीने अंतरना ज्ञानानंदस्वभाव तरफ वळवुं. केम के पराश्रित
परिणमन ते संसारनुं कारण छे ने स्वभाव सन्मुखता ते मोक्षनुं कारण छे.
गमे ते संयोगमां, गमे ते क्षेत्रमां, गमे ते काळमां जे जीव पोते निश्चय स्वभावनो
आश्रय करीने परिणमे छे ते ज जीव सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ने मोक्ष पामे छे; अने जे
जीव शुद्धस्वभावनो आश्रय नथी करतो ने पराश्रित एवा व्यवहारनो आश्रय करे छे ते
जीव कोई संयोगमां, कोई क्षेत्रमां के कोई काळमां सम्यग्दर्शनादि पामतो नथी.
इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि ।
नास्ति बंधस्तदत्यात्तत्त्यागाद्बंध एव हि ।।१२२।।
अहीं आ ज तात्पर्य छे के शुद्धनय त्यागवा योग्य नथी; कारण के तेना अत्यागथी
बंध थतो नथी अने तेना त्यागथी बंध ज थाय छे.