Atmadharma magazine - Ank 177
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः१७८
जे सम्यग्दर्शनादि भावो प्रगटया छे ते ज अमारुं ‘स्व’ छे ने तेना ज अमे स्वामी छीए,–आ रीते मात्र पोताना
स्व–भावमां ज स्व–स्वामीपणुं जाणे छे. आ सिवाय शरीर के रागादि साथे स्व–स्वामीपणुं मानता नथी.
आचार्यदेवे तो कह्युं के जो तुं अजीवने पोतानुं मानीने ते अजीवनो स्वामी थवा जईश तो तुं अजीव थई
जईश!–एटले के जीवतत्त्व तारी श्रद्धामां नहि रहे, माटे हे भाई! जो तुं तारी श्रद्धामां तारा जीवतत्त्वने जीवतुं
राखवा मांगतो हो तो तारा आत्माने ज्ञायकस्वभावी ज जाणीने तेनो ज स्वामी था, ने बीजानुं स्वामीपणुं
छोड.
प्रश्नः– मुनिओए धन–मकान–स्त्री–वस्त्र वगेरे छोडी दीधुं छे एटले ते तो तेनो स्वामी नथी, परंतु अमारे
गृहस्थोने तो ते बधुंय होय एटले अमे तो तेना स्वामी खरा ने?
उत्तरः– अरे भाई! शुं मुनिनो आत्मा ने तारो आत्मा जुदी जुदी जातना छे? अहीं आत्माना
स्वभावनी वात छे; जगतनो कोईपण आत्मा परद्रव्यनो तो स्वामी छे ज नहि. सिद्धभगवान के संसारी मूढ
प्राणी, केवळी भगवान के अज्ञानी, मुनि के गृहस्थी कोईपण आत्मा परद्रव्यनो स्वामी नथी. हवे मुनिने स्त्री–
वस्त्रादिनो राग छूटी गयो छे ने तने ते राग नथी छूटयो; राग होवा छतां, आत्मानो स्वभाव ज्ञायकमूर्ति छे,
रागनुं स्वामीपणुं पण मारा ज्ञायकस्वभावमां नथी–एम पहेलां निर्णय तो कर. धर्मीने राग होवा छतां तेना
अभिप्रायमां ‘राग ते हुं’ एवी रागनी पक्कड नथी पण ‘ज्ञायकस्वभाव ज हुं’–एवी स्वभावनी पक्कड छे.
चैतन्यस्वभावने चूकीने देहादि परनुं स्वामीपणुं मानवुं ते तो मिथ्यात्व छे ज, अने शुभाशुभ परिणामनुं
स्वामीत्व ते पण मिथ्यात्व ज छे.
प्रश्नः– शुभाशुभ परिणामनो स्वामी आत्मा नथी तो कोण छे?
उत्तरः– शुभाशुभ परिणाम आत्मानी पर्यायमां थाय छे ते अपेक्षाए तो आत्मा ज तेनो स्वामी छे. परंतु
अहीं तो आत्माना स्वभावनुं–आत्मानी शक्तिनुं वर्णन चाले छे. शुभाशुभ परिणाम ते आत्मानो स्वभाव नथी,
आत्मा तो ज्ञायकस्वभावी छे; ते ज्ञायकस्वभावना आश्रये शुभाशुभ भावरूप परिणमन थतुं ज नथी, माटे
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिवाळा धर्मात्मा शुभाशुभ परिणामना स्वामी थता नथी; ज्ञायकस्वभावना आश्रये जे
सम्यग्दर्शनादि वीतरागी परिणाम थया तेना ज ते स्वामी थाय छे. अज्ञानीने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी तेथी ते ज
शुभाशुभ परिणामनो स्वामी थईने–तेमां एकत्वबुद्धिथी मिथ्यात्वरूपे परिणमे छे.
धर्मी जाणे छे के हुं तो मारा ज्ञान–आनंद वगेरे अनंत गुणोनो स्वामी छुं, ने ते ज मारा स्व–भावो छे. मारुं
स्वरूप एवुं नथी के हुं विकारनो स्वामी थाउं. विकारनो स्वामी तो विकार होय, मारो शुद्धभाव विकारनो स्वामी केम
होय? मारा ज्ञायकस्वभाव साथे एकत्व थयेलो जे निर्मळभाव (सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र) ते ज मारुं स्व छे ने हुं
तेनो ज स्वामी छुं. मारा आ स्व–धनने हुं कदी छोडतो नथी. जे मारुं स्व होय ते माराथी जुदुं केम पडे? स्वभावमां
एकाग्र थतां रागादि तो माराथी छूटा पडी जाय छे माटे ते मारुं स्व नथी.
जे जेने पोतानुं माने ते तेने छोडवा मांगे नहि. रागने जे पोतानुं स्व माने छे ते रागने छोडवा
मांगतो नथी. एटले पोताना स्वभावथी ते रागने जुदो नथी जाणतो, तेथी ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे. जे एम
जाणे के हुं तो ज्ञायक स्वभाव छुं, राग ते मारा स्वभावथी जुदो भाव छे, आम जाणीने ज्ञायक स्वभावना
आश्रये सम्यग्दर्शनादि भाव प्रगट करे, पछी तेने जे अल्पराग रहे ते अस्थिरता पूरतो चारित्रदोष कहेवाय.
तेने श्रद्धामां ज्ञायक भावनुं ज स्वामीपणुं वर्ते छे, रागनुं स्वामीपणुं वर्ततुं नथी एटले श्रद्धानो दोष तेने छूटी
गयो छे. परंतु जे जीव ज्ञायकस्वभावने ज पोतानो जाणीने तेनी सन्मुखताथी सम्यग्दर्शनादि रूपे परिणमतो
नथी, ने परना तथा रागना ज स्वामीत्वपणे परिणमे छे तेने तो श्रद्धा ज खोटी छे; अने श्रद्धानो दोष ते
अनंत संसारनुं कारण छे.
प्रश्नः– आ आत्मा परनो स्वामी नहि, परंतु ईश्वरे आत्माने बनाव्यो छे तेथी ते तो आ आत्माना स्वामी
खरा ने?
उत्तरः– ए तो वळी घणी मोटी मूढता थई. आ आत्माने कोईए बनाव्यो नथी. आत्मा स्वयंसिद्ध वस्तु छे,
तेनो कोई बनावनार नथी. ईश्वरनुं स्वरूप पण