Atmadharma magazine - Ank 177
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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द्वितीय श्रावणः २४८४ः ९ः
थी व्यावृत्त (भिन्न) पणाने लीधे आत्मारूपी ज एक अग्रमां (ध्येयमां) चिंताने रोके छे...ते...खरेखर शुद्धात्मा होय
छे.” जुओ, धर्मी पोताना आत्मामांथी परद्रव्यनो संबंध खंखेरी नांखे छे, ने एक शुद्ध ज्ञानस्वरूपे ज पोताना
आत्माने ध्यावे छे. “प्रथम तो हुं स्वभावथी ज्ञायक ज छुं; केवळ ज्ञायक होवाथी मारे विश्वनी साथे पण सहज
ज्ञेयज्ञायकलक्षण संबंध ज छे, परंतु बीजा स्वस्वामीलक्षणादि संबंधी नथी; तेथी मारे कोई प्रत्ये ममत्व नथी, सर्वत्र
निर्ममत्व ज छे.”–मोक्ष–अधिकारी जीव आवा ज्ञायकस्वभावी आत्मानो निर्णय करीने सर्व उद्यमथी पोताना
शुद्धात्मामां ज प्रवर्ते छे. (जुओ, प्रवचनसार गा. २०० टीका) जे जीव पर साथे कर्ताकर्मपणुं, स्व–स्वामीपणुं वगेरे
संबंध जरा पण माने ते जीव परनुं ममत्व छोडीने पोताना ज्ञायकस्वभावमां प्रवर्ती शकतो नथी, ते तो राग–द्वेष–
मोहमां ज प्रवर्ते छे, ते खरेखर मोक्षनो अधिकारी नथी.
जुओ, आ आत्माने कोनी साथे खरो संबंध छे ते बतावे छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के–
“हुं कोण छुं? क्यांथी थयो?
शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे!
राखुं
के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक
शांतभावे
जो कर्या,
तो सर्व आत्मिक ज्ञाननां
सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्यां.”
धर्मी जाणे छे हुं तो ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा छुं; ज्ञान–दर्शनस्वभाव ज मारुं स्व छे ने तेनो ज हुं स्वामी छुं.
ए सिवाय बीजा कोईनो हुं स्वामी नथी, तेमज बीजुं कोई मारुं स्वामी नथी. आ कुटुंब–स्त्री–पुत्र–धन–शरीर ते कोई
मारुं स्व नथी ने हुं तेनो स्वामी नथी. नियमसारमां कहे छे के आ स्त्रीपुत्रादिक कोई तारा सुख–दुःखना भागीदार थता
नथी, ते तो पोतानी आजीविका माटे धूताराओनी टोळी तने मळी छे. जो तुं एने पोताना मानीश तो तुं धुताई
जईश. (जुओ गा. १०१नी टीका.) ए स्त्री पुत्रादिक कोई आ आत्माना संबंधी खरेखर नथी. तीर्थंकर भगवान वगेरे
आराधक जीवो माताना पेटमां होय त्यारे पण पोताना आत्माने आवो ज जाणे छे, पर साथे जराय संबंध मानता
नथी. केम के–
‘परद्रव्य आ मुज द्रव्य’ एवुं कोण ज्ञानी कहे अरे!
निज आत्मने निजनो परिग्रह जाणतो जे निश्चये? २०७
परिग्रह कदी मारो बने तो हुं अजीव बनुं खरे,
हुं तो खरे ज्ञाता ज, तेथी नहि परिग्रह मुज बने. २०८
“जे जेनो स्वभाव छे ते तेनुं स्व (धन, मिलकत) छे, अने ते तेनो (स्व भावनो) स्वामी छे–एम सूक्ष्म
तीक्ष्ण तत्त्वद्रष्टिना आलंबनथी ज्ञानी पोताना आत्माने ज आत्मानो परिग्रह नियमथी जाणे छे, तेथी ‘आ मारुं स्व
नथी, हुं आनो स्वामी नथी’ एम जाणतो थको पर द्रव्यने परिग्रहतो नथी.” (–समयसार गा. २०७ टीका)
वळी ज्ञानी कहे छे के–“जो अजीव परद्रव्यने हुं परिग्रहुं तो अवश्यमेव ते अजीव मारुं स्व थाय, हुं पण
अवश्यमेव ते अजीवनो स्वामी थाउं; अने अजीवनो जे स्वामी ते खरेखर अजीव ज होय. ए रीते अवशे
(लाचारीथी) पण मने अजीवपणुं आवी पडे. मारुं तो एक ज्ञायकभाव ज स्व छे, ने तेनो ज हुं स्वामी छुं; माटे मने
अजीवपणुं न हो, हुं तो ज्ञाता ज रहीश, पर द्रव्यने नहि परिग्रहुं.” (–समयसार गा. २०८ टीका)
आठ वर्षनी नानी बाळिका पण जो समकित पामे तो ते पोताना आत्माने आवो ज जाणे छे. पछी मोटी थतां
तेना लग्न थाय ने परणे तो पण तेना अंर्तअभिप्रायमां पोताना ज्ञायकस्वभावी आत्मा सिवाय बीजा कोईने ते
पोतानो स्वामी मानती नथी. अने पति जो धर्मात्मा होय तो ते पण एम नथी मानता के ‘हुं आ स्त्रीनो स्वामी छुं,’ हुं
तो मारा ज्ञाननो ज स्वामी छुं–एम धर्मी जाणे छे. पति–पत्नी तरीके एकबीजा प्रत्ये जे राग छे तेने ते पोताना दोष
तरीके जाणे छे, अने ज्ञायकस्वभावमां ते रागनुं स्वामीपणुं पण स्वीकारता नथी. अमारा ज्ञायकस्वभावना आश्रये