Atmadharma magazine - Ank 177
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ८ः आत्मधर्मः १७८
आ भगवान आत्मा पोतानी ज्ञानक्रियामां अनंत शक्तिथी उल्लसी रह्यो छे, तेना ज्ञानमात्र भावमां अनंत
धर्मो एक साथे परिणमी रह्या छे, तेथी आत्मा अनेकान्तमूर्ति छे. आवा अनेकान्तमूर्ति आत्मानी ४७ शक्तिओनुं
अमृतचंद्र आचार्यदेवे अद्भुत वर्णन कर्युं छे. तेमांथी ४६ शक्तिओनुं घणुं सरस विवेचन थई गयुं, हवे छेल्ली
संबंधशक्ति छे. “स्वभावमात्र स्व–स्वामीत्वमयी संबंधशक्ति आत्मा छे.”
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–आनंदरूप जे पोतानो भाव छे ते ज आत्मानुं स्व–धन छे, ने तेनो ज आत्मा स्वामी छे;
ए सिवाय बीजुं कांई आत्मानुं स्व नथी ने आत्मा तेनो स्वामी नथी. जुओ, आ संबंधशक्ति! संबंधशक्ति पण
आत्मानो पर साथे संबंध नथी बतावती, पण पर साथेनो संबंध तोडावीने स्वमां एक्ता करावे छे; आ रीते
आत्माना एकत्वविभक्त स्वरूपने बतावे छे. समकिती धर्मात्मा एम अनुभवे छे के–
हुं एक शुद्ध सदा अरूपी ज्ञानदर्शनमय खरे,
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे!
आ एक शुद्ध ज्ञानदर्शनमय सदा अरूपी आत्मा ज हुं छुं, ए ज मारुं स्व छे, ए सिवाय जगतमां बीजुं कांई
एक परमाणुमात्र पण मारुं नथी. पोते पोताना आत्मस्वभावमां वळीने स्वमां एक्तारूपे परिणम्यो त्यां कोई पण
परद्रव्य साथे जरा पण संबंध भासतो नथी.
आवा परना संबंध वगरना शुद्ध आत्माने देखवो ते ज धर्म छे, ते ज जैनशासन छे. आचार्य कुंदकुंदप्रभु कहे छे
के–जे पुरुष आत्माने अबद्धस्पृष्ट (एटले के कर्मना बंधन रहित अने संबंध रहित), अनन्य, अविशेष तथा नियत
अने असंयुक्त देखे छे ते सर्व जिनशासनने देखे छे;
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं...पस्सदि जिणसासणं सव्वं..” जे
आ अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष अने असंयुक्त एवा पांच भावोस्वरूप आत्मानी अनुभूति छे ते
निश्चयथी समस्त जिनशासननी अनुभूति छे...जुओ, आचार्यभगवान स्पष्ट कहे छे के परना संबंध वगरना शुद्ध
आत्मानी अनुभूति ते ज जैनधर्म छे. खरेखर आत्मानो स्वभाव रागना पण संबंध वगरनो छे. जे जीव पोताना
आत्माने कर्मना संबंधवाळो ने विकारी ज देखे छे पण कर्मना संबंध रहित अने रागादि रहित एवा पोताना शुद्ध
स्वभावने नथी देखतो तेणे जिनशासनने जाण्युं नथी, ने तेना आत्मामां जैनधर्म प्रगटयो नथी. ज्ञानदर्शनस्वभाव ज
हुं छुं, ने ज्ञानदर्शन स्वभावथी जुदा बीजा जे कोई भावो छे ते हुं नथी, ते बधाय मारा स्वरूपथी बाह्य छे.–आ प्रमाणे
ज्ञानदर्शनस्वभावमां एकत्वपणे ने बीजा समस्त पदार्थोथी विभक्तपणे पोताना आत्माने अनुभववो ते जैनधर्म छे,
आवा आत्माने जाण्या वगर खरेखर जैनपणुं थाय नहि.
आ जगतमां मारुं शुं छे ने कोनी साथे मारे परमार्थसंबंध छे तेना भान वगर, परने ज पोतानुं मानी–मानीने
जीव संसारमां रखडी रह्यो छे. परद्रव्य कदी पोतानुं थई शकतुं ज नथी, छतां परने पोतानुं माने ते जीव मोहने लीधे दुःखी
ज थाय. जो परने पररूपे जाणे ने स्वने ज स्व–रूपे जाणे ते निःशंकपणे पोताना स्वरूपमां एकाग्रताथी सुखी ज थाय.
दुःखनुं मूळ शुं?
–के परद्रव्यने पोतानुं मानवुं ते.
सुखनुं मूळ शुं?
–के स्व–परनुं भेदज्ञान करवुं ते,
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।
तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।
जे कोई जीवो सिद्ध थया छे तेओ भेदज्ञानथी ज सिद्ध थया छे; जे कोई जीवो बंधाया छे तेओ भेदज्ञानना
अभावथी ज बंधाया छे.
भेदज्ञान शुं छे तेनुं आ वर्णन चाले छे. आत्माना ज्ञानदर्शनस्वभाव सिवाय बीजे क्यांय पण स्वामीपणुं माने
तो ते जीवने भेदज्ञान नथी पण अज्ञान छे. धर्मी पोताना आत्माने केवो ध्यावे छे ते प्रवचनसारमां कहे छे–
‘हुं परतणो नहि, पर न मारां, ज्ञान केवळ एक हुं
–जे एम ध्यावे, ध्यानकाळे जीव ते ध्याता बने.’ १९१
“जे आत्मा..‘हुं परनो नथी, पर मारां नथी’ एम स्व–परना परस्पर स्व–स्वामीसंबंधने खंखेरी नाखीने,
‘शुद्ध ज्ञान ज एक हुं छुं’ एम अनात्माने छोडीने, आत्माने ज आत्मापणे ग्रहीने, परद्रव्य–