Atmadharma magazine - Ank 177
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 19 of 25

background image
ः १८ः आत्मधर्मः १७८
भासता नथी; ‘हुं ज्ञानस्वरूप छुं’ एवी आत्मभावनाना जोरे धर्मीने रागादि नाश थता जाय छे.
ज्यांसुधी आ जीव पोताना निजानंदस्वभावना सहज अमृतनुं पान नथी करतो त्यांसुधी ज बाह्य
पदार्थोने भ्रमथी ते इष्ट–अनीष्ट माने छे, तेथी इष्ट संयोगमां ते मित्रता माने छे ने अनीष्ट संयोगमां ते शत्रुता
माने छे; आ रीते परने मित्र के शत्रु मानतो होवाथी राग–द्वेषनो तेनो अभिप्राय छूटतो नथी, ने वीतरागी
शांति तेने थती नथी. पण ज्यारे संयोगथी भिन्न पोताना चिदानंद स्वभावना वीतरागी अमृतनुं ते पान करे
छे त्यारे पोताने सदा ज्ञानस्वरूपे ज देखे छे, ने ज्ञानस्वरूपमां कोईने मित्र के शत्रु तरीके ते मानतो नथी; अहा!
हुं तो ज्ञानमूर्ति छुं, ज्ञानस्वभावनी भावनामां राग–द्वेष छे ज नहि; तो राग वगर हुं कोने मित्र मानुं? ने द्वेष
वगर हुं कोने शत्रु मानुं? मित्र के शत्रु तो राग–द्वेषमां छे, ज्ञानमां मित्र–शत्रु केवा? ज्ञानमां राग–द्वेष नथी, तो
राग–द्वेष वगर मित्र के शत्रु केवा? आ रीते ज्ञानभावनारूपे परिणमेला ज्ञानी कहे छे के मारा चिदानंद–स्वरूपने
देखतां वेंत ज राग–द्वेष एवा क्षीण थई गया छे के जगतमां कोई मने मित्र के शत्रु भासता नथी, जगतथी
भिन्न मारुं ज्ञानानंदस्वरूप ज मने भासे छे. जुओ, आवा आत्मस्वरूपनी भावना ते ज वीतरागी समाधिनो
उपाय छे, ने वीतरागी समाधि ते ज भवअंतनो उपाय छे, माटे वारंवार आवा आत्मस्वरूपनी भावना करवी
ते तात्पर्य छे.
–कोण विद्वान एम कहे?
गुरुचरणोना समर्चनथी उत्पन्न थयेला निज महिमाने
जाणतो कोण विद्वान ‘आ परद्रव्य मारुं छे’ एम कहे?
को नाम वक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात् ।
निजमहिमानं जानन् गुरुचरणसमर्च्चनासमुद्भूतम् ।।१३२।।
–श्री पद्मप्रभ मुनिमहाराज
‘परद्रव्य आ मुज द्रव्य’ एवुं कोण ज्ञानी कहे अरे!
निज आत्मने निजनो परिग्रह जाणतो जे निश्चये.
–भगवत् कुंदकुंदाचार्य