Atmadharma magazine - Ank 177
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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द्वितीय श्रावणः २४८४ः १७ः
– परम शांति दातारी –
अध्यात्म भावना
भगवानश्री पूज्य पादस्वामी रचित ‘समाधिशतक’
उपर परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीना अध्यात्मभावना
–भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(वीर सं. २४८२, जेठ सुद १४ (१); समाधिशतक गा. २प)
आत्माने समाधि केम थाय–वीतरागी शांति केम थाय तेनुं आ वर्णन छे. मारो आत्मा देहथी भिन्न
ज्ञानानंदस्वरूप छे–एम परथी भिन्न आत्माने जाण्या वगर समाधि थाय नहि. जे पोताने परथी भिन्न
ज्ञानानंदस्वरूप जाणे छे तेने परमां ‘आ मारो मित्र के आ मारो शत्रु’ एवी बुद्धि रहेती नथी. एटले बोधस्वरूप
आत्माना लक्षे तेने एवो वीतरागभाव थई जाय छे के कोई मारो शत्रु के कोई मारो मित्र एम ते मानतो नथी. ते
वात हवेनी गाथामां कहे छे–
क्षीयन्तेऽत्रव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यतः।
बोधात्मानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः।।२५।।
मारा ज्ञानस्वरूप आत्माना अवलोकनथी अहीं ज रागद्वेषादि दोषो क्षय पामी जाय छे, तेथी मारे कोई मित्र
नथी के कोई शत्रु नथी. जुओ, आ वीतरागी समाधिनी रीत! हुं तो ज्ञानस्वरूप ज छुं, एम नक्की करीने ज्यां
ज्ञानस्वरूपनी भावनामां रह्यो त्यां बहारमां कोई मने मारा शत्रु के मित्र भासता नथी, केमके ज्ञानस्वरूपनी
भावनाथी रागद्वेषनो नाश थई गयो छे. जेना उपर राग होय तेने पोतानो मित्र माने ने जेना उपर द्वेष होय तेने
शत्रु माने, पण हुं तो बोधस्वरूप शुद्ध चैतन्य छुं–एवी भावनामां राग–द्वेषनो क्षय थतां कोई मित्र–शत्रुपणे भासतां
नथी. पहेलां आवो वीतरागी अभिप्राय थया वगर कदी राग–द्वेषनो नाश थाय नहि ने वीतरागी समाधि प्रगटे नहि.
हुं ज्ञानस्वरूप छुं, रागद्वेष मारा ज्ञानस्वरूपमां छे ज नहि ने बहारना कोई मारा शत्रु के मित्र नथी–आवा वीतरागी
अभिप्रायपूर्वक चैतन्यनी भावनाथी वीतरागी समाधि थाय छे. पण परने पोतानुं इष्ट–अनिष्ट माने, परने मित्र के
शत्रु माने तेने राग–द्वेष कदी छूटे नहि. माटे ज्ञानस्वरूप आत्माने जाणीने तेनी भावना करवी ते ज रागादिना नाशनो
ने समाधिनो उपाय छे.
आ शरीरनी सेवा करनार मारा मित्र नथी केमके शरीर हुं नथी, शरीरनो घात करनार मारा शत्रु नथी केमके
शरीर हुं नथी, हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं. मारा ज्ञानस्वरूपनी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेनी भावनाथी रागादिनो क्षय थतां मने
कोई मित्र के शत्रुपणे भासता नथी. सम्यग्द्रष्टि अंतरात्मा कोई राजा होय ने लडाईनो पण प्रसंग आवी जाय, छतां ते
प्रसंगेय तेने भान छे के हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं, मारा ज्ञानस्वरूपने आ जगतमां कोई मित्र के वेरी नथी.–आवो
वीतरागी अभिप्राय धर्मीने कोई क्षणे छूटतो नथी. अने आवा अभिप्रायने लीधे ज्ञानानंदस्वरूपनी भावना करतां
रागादिनो क्षय थाय छे. चोथा गुणस्थाने हजी अमुक राग–द्वेष थाय छे तेटलो दोष छे पण कोई परने शत्रु के मित्र
मानीने ते रागद्वेष थता नथी, तेमज ज्ञानस्वरूपमां ते रागद्वेष कर्तव्यपणे