छे के तुं तारा ज्ञायक चिदानंदस्वरूपनी
सन्मुख था; परने फेरववानी बुद्धि मिथ्या छे.
गमे ते पडखेथी वात करी होय, सर्वज्ञ
तरफथी वात करी होय के क्रमबद्ध–पर्यायनी
वात होय, छ द्रव्यनी वात होय के नवतत्त्वनी
वात होय, निश्चय–व्यवहारनी वात होय के
उपादान–निमित्तनी वात होय, द्रव्य–गुण–
पर्यायनी वात होय के बार भावनानी वात
होय.–बधी वातमां मूळ तात्पर्य तो संतोने
आ ज बताववुं छे के हे जीव! तारा
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने ते तरफ तुं
वळ! “हुं तो ज्ञानपिंड छुं, ज्ञान सिवाय
अन्य पदार्थोनुं किंचित्मात्र कर्तृत्व मारामां
नथी.”–ज्यां सुधी जीव आवो निर्णय न करे
त्यां सुधी तेने हितनो मार्ग हाथ आवे नहि,
ने दिगंबर संतोए शास्त्रमां शुं कह्युं छे तेनी
तेने खबर पडे नहि.