Atmadharma magazine - Ank 177
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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द्वितीय श्रावणः २४८४ः पः
(असाड सुद बीजना प्रवचनमांथी)
द्रव्य सत् छे, ते पोताना गुण–पर्यायोथी अभेद छे, एटले गुणो साथे नित्य टकीने
नवी नवी पर्यायरूपे पोते स्वयं परिणमे छे. आवा द्रव्यनुं स्वरूप–चतुष्टयथी (पोताना
द्रव्यथी, क्षेत्रथी, काळथी ने भावथी) सत्पणुं छे ने पर चतुष्टयथी असत्पणुं छे.–सर्वज्ञ
भगवाने जोयेलो आवो वस्तुस्वभाव छे.
सर्वज्ञ भगवाने राग अने विकल्पथी पार थईने अतीन्द्रिय ज्ञानवडे जगतना
पदार्थोनुं आवुं स्वरूप जाण्युं, ने पछी राग अने विकल्प वगर वाणीथी वीतरागपणे ते
कहेवायुं; ते तत्त्वोने राग अने विकल्पथी पार एवा भावश्रुतज्ञानवडे जाणतां
सम्यग्ज्ञाननी प्रसिद्धि थाय छे. आ रीते सम्यग्ज्ञाननी प्रसिद्धि कराववा अर्थे आ शास्त्रनो
उपदेश छे.
जे ‘सत्’ छे ते ज परपणे ‘असत्’ छे, पण सत्नो सर्वथा नाश थईने ते असत्
थई जाय–एम बनतुं नथी. सत्नो सर्वथा विच्छेद थतो नथी, ने जे सर्वथा असत् होय
तेनी उत्पत्ति थती नथी.
‘जे छे, ते ज नथी’–कई रीते? के ‘स्यात
’; एटले के स्व–रूपे जे सत् छे ते ज
पररूपे सत् नथी; परंतु स्व–रूपे जे ‘सत्’ छे ते ज स्व–रूपे पण ‘असत्’ छे–एम नथी.
जो एम होय तो पदार्थनुं कांई स्वरूप ज नथी रहेतुं. अर्थात् ते सत् पण नथी सिद्ध थतुं के
असत् पण नथी सिद्ध थतुं. माटे ‘सत्पणुं, तो स्व–रूपे छे, ने ‘असत्पणुं’ पर–रूपे छे,
–आवुं अनेकान्तरूप वस्तुस्वरूप छे.
आत्मा सत् छे,–कया रूपे? पोताना ज्ञान–आनंदरूपे; आत्मा असत् छे,–कया रूपे?
देहादि पर–रूपे; पोताना आवा ‘सत्’ स्वरूपने न जोतां, पररूपे–देहादिरूपे के एकला
रागादिरूपे ज स्व–सत्ता मानवी ते भ्रमणा छे, ते आत्मभ्रांति छे, ने ते ज संसारनुं मूळ छे.
जे सत् छे ते त्रण काळ रहेनारुं छे, ने त्रणे काळे पोतानी पर्यायसहित छे; केम के
पर्याय वगरनुं सत् कोई काळे होतुं नथी...तो हवे त्रिकाळी सत्ने के तेनी कोई पर्यायने