Atmadharma magazine - Ank 177
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 25

background image
ः ६ः आत्मधर्मः १७८
पराश्रयपणुं क्यां रहे छे!! जगतमां बीजी परचीजोनुं अस्तित्व हो भले, पण तेनुं
सत्पणुं तेनामां छे, आत्मामां नथी. माटे परने लीधे कांई आत्मानुं सत्पणुं नथी के
परने लीधे आत्मानी पर्याय नथी; तेमज आत्माने लीधे परनुं सत्पणुं के परनी
पर्याय नथी.
अहा! आत्मा तो जगतथी जुदो परम शांत अतीन्द्रियरसनो सागर छे; तेने चूकीने
रागना रसमां रोकावुं ते संसार छे. अने अंतर्मुख थईने शांतरसस्वरूप आत्मानुं
स्वसंवेदन करवुं ते मुक्तिनो मार्ग छे.
शरीरनी मांदगी वगेरे जे कांई थाय ते शरीरमां–पुद्गलमां छे, जीवमां नथी, तो
तेने कारणे आत्मानी परिणति अटके के बगडे के ढीली पडे एम नथी. अरे, चैतन्यनी
प्रभुतामां परनी सत्ता ज नथी, तो पर तेने शुं करे? पण परने लीधे मारुं कंई थाय ने
मारे लीधे परनुं कंई थाय–एवी भ्रमणा जीवने अंतर्मुख थवा देती नथी, अने अंतर्मुखता
वगर आत्मशांतिनुं वेदन थतुं नथी ने बहिर्भावोमां ज ते भटके छे.
आत्मा ज्ञाता छे, पदार्थो ज्ञेय छे; बंने सत् छे पण ज्ञातामां परज्ञेयो नथी. स्वनुं
स्वपणे अस्तित्व छे, परनुं परपणे अस्तित्व छे, स्व–परनी एकबीजामां नास्ति छे,
आवुं समजीने, परथी भिन्न एवा स्वमां अंतर्मुख थतां उपादान–निमित्तना ने
निश्चय–व्यवहारना बधाय खुलासा थई जाय छे, क्यांय निमित्ताधीन बुद्धि के
पराधीनबुद्धि रहेती नथी, स्वरूपनी अंतर्मुखतामां परम शांतरसरूप अमृतनुं वेदन
थाय छे.
आवुं अनेकान्तनुं फळ होवाथी अनेकान्त ते अमृत छे.
ए अमृतने पू. गुरुदेवना स्वहस्ताक्षरमां पीरसीए तो–
हे आत्मार्थी बंधुओ! ..
पू. गुरुदेवे वहेवडावेली अमृतधारानुं पान करो..
.. ए अमृतरसना पानथी अमर पदनी प्राप्ति थशे.