आत्माने समाधि केम थाय-वीतरागी शांति केम थाय तेनुं आ वर्णन छे. मारो आत्मा देहथी भिन्न
ज्ञानानंदस्वरूप जाणे छे तेने परमां ‘आ मारो मित्र के आ मारो शत्रु’ एवी बुद्धि रहेती नथी. एटले बोधस्वरूप
आत्माना लक्षे तेने एवो वीतरागभाव थई जाय छे के कोई मारो शत्रु के कोई मारो मित्र एम ते मानतो नथी.
ते वात हवेनी गाथामां कहे छे-
बोधात्मानं ततः कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः।।२५।।
ज्यां ज्ञानस्वरूपनी भावनामां रह्यो त्यां बहारमां कोई मने मारा शत्रु के मित्र भासता नथी, केमके ज्ञानस्वरूपनी
भावनाथी रागद्वेषनो नाश थई गयो छे. जेना उपर राग होय तेने पोतानो मित्र माने ने जेना उपर द्वेष होय
तेने शत्रु माने, पण हुं तो बोधस्वरूप शुद्ध चैतन्य छुं-एवी भावनामां राग-द्वेषनो क्षय थतां कोई मित्र-शत्रुपणे
भासतां नथी. पहेलां आवो वीतरागी अभिप्राय थया वगर कदी राग-द्वेषनो नाश थाय नहि ने वीतरागी
समाधि प्रगटे नहि. हुं ज्ञानस्वरूप छुं, रागद्वेष मारा ज्ञानस्वरूपमां छे ज नहि ने बहारना कोई मारा शत्रु के
मित्र नथी-आवा वीतरागी अभिप्रायपूर्वक चैतन्यनी भावनाथी वीतरागी समाधि थाय छे. पण परने पोतानुं
इष्ट-अनिष्ट माने, परने मित्र के शत्रु माने तेने राग-द्वेष कदी छूटे नहि. माटे ज्ञानस्वरूप आत्माने जाणीने तेनी
भावना करवी ते ज रागादिना नाशनो ने समाधिनो उपाय छे.
थतां मने कोई मित्र के शत्रुपणे भासता नथी. सम्यग्द्रष्टि अंतरात्मा कोई राजा होय ने लडाईनो पण प्रसंग
आवी जाय, छतां ते प्रसंगेय तेने भान छे के हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं, मारा ज्ञानस्वरूपने आ जगतमां कोई मित्र के
वेरी नथी.-आवो वीतरागी अभिप्राय धर्मीने कोई क्षणे छूटतो नथी. अने आवा अभिप्रायने लीधे
ज्ञानानंदस्वरूपनी भावना करतां रागादिनो क्षय थाय छे. चोथा गुणस्थाने हजी अमुक राग-द्वेष थाय छे तेटलो
दोष छे पण कोई परने शत्रु के मित्र मानीने ते रागद्वेष थता नथी, तेमज ज्ञानस्वरूपमां ते रागद्वेष कर्तव्यपणे