शत्रुता माने छे; आ रीते परने मित्र के शत्रु मानतो होवाथी राग-द्वेषनो तेनो अभिप्राय छूटतो नथी, ने
वीतरागी शांति तेने थती नथी. पण ज्यारे संयोगथी भिन्न पोताना चिदानंद स्वभावना वीतरागी
अमृतनुं ते पान करे छे त्यारे पोताने सदा ज्ञानस्वरूपे ज देखे छे, ने ज्ञानस्वरूपमां कोईने मित्र के शत्रु
तरीके ते मानतो नथी; अहा! हुं तो ज्ञानमूर्ति छुं, ज्ञानस्वभावनी भावनामां राग-द्वेष छे ज नहि; तो राग
वगर हुं कोने मित्र मानुं? ने द्वेष वगर हुं कोने शत्रु मानुं? मित्र के शत्रु तो राग-द्वेषमां छे, ज्ञानमां
मित्र-शत्रु केवा? ज्ञानमां राग-द्वेष नथी, तो राग-द्वेष वगर मित्र के शत्रु केवा? आ रीते ज्ञानभावनारूपे
परिणमेला ज्ञानी कहे छे के मारा चिदानंद-स्वरूपने देखतां वेंत ज राग-द्वेष एवा क्षीण थई गया छे के
जगतमां कोई मने मित्र के शत्रु भासता नथी, जगतथी भिन्न मारुं ज्ञानानंदस्वरूप ज मने भासे छे.
जुओ, आवा आत्मस्वरूपनी भावना ते ज वीतरागी समाधिनो उपाय छे, ने वीतरागी समाधि ते ज
भवअंतनो उपाय छे, माटे वारंवार आवा आत्मस्वरूपनी भावना करवी ते तात्पर्य छे.
गुरुचरणोना समर्चनथी उत्पन्न थयेला निज महिमाने
निजमहिमानं जानन् गुरुचरणसमर्च्चनासमुद्भूतम् ।।१३२।।
निज आत्मने निजनो परिग्रह जाणतो जे निश्चये.