Atmadharma magazine - Ank 179
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B. 4787
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आ छे, ज्ञानी संतोनो आदेश!
हे जीव! हुं ज्ञायक छुं एवो निर्णय करीने
अंतरमां तेनो पत्तो मेळव.
अने ज्यां सुधी ज्ञायकस्वभावनो पत्तो न
मळे त्यां सुधी अंतरमां खरेखरी लगनीवडे
एनो ज प्रयत्न कर्या कर अने तेनो पत्तो
मेळव.
चैतन्यनिधि अमृतनो सागर अहीं तारी
पासे विद्यमान पडयो छे, उपयोगने अंतरमां
वाळ एटली ज वार छे; उपयोगने अंतरमां
वाळतां ज कदी नहि अनुभवायेलो एवो
आनंद तने तारा आत्मामां अनुभवाशे.
बधुंय तारामां पडयुं छे, क्यांय बहार
गोतवा जवुं पडे तेम नथी.
मारे ने लोकने कांई संबंध नथी. हुं ज्ञायक
छुं, मारा ज्ञायकपणामां रागनो पण अभाव
छे;–आम बधा साथेथी संबंध तोडीने अंतरमां
एक ज्ञायक साथे ज संबंध जोडवो; ज्ञायक ज हुं
छुं–एम अंतरमां शांतिथी एकाग्र थईने
ज्ञायकनो अनुभव करवो. ते अनुभवमां
आनंद–स्वरूप परमात्मतत्त्व प्रगटे छे.
–पू. गुरुदेव.
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्टवती मुद्रक अने प्रकाशकः हरिलाल देवचंद शेठः आनंद प्रि. प्रेस– भावनगर.