ः २ः आत्मधर्मः १७९
आत्मार्थी जीवनो उत्साह
अने आत्मलगनी
(लेखांक पहेलो)
(श्री पंचास्तिकाय गाथा १०३ उपरना प्रवचनोमांथी;
‘कहानरश्मि’ मकानना वास्तुप्रसंगे थयेलुं प्रवचन पण
आमां भेळवी देवामां आव्युं छे.)
आत्मार्थी जीवनी धगश केवी होय, तेनी आत्मलगनी
केवी होय, पोतानुं सम्यक्त्वकार्य साधवा माटे तेनो उत्साह
अने उद्यम केवो होय, तेनुं घणुं सुंदर अने प्रेरणादायी
विवेचन पू. गुरुदेवे आ प्रवचनोमां कर्युं छे.
“संसारथी तरवाना कामी आत्मार्थी जीवने ज्ञानी
संतो भेदज्ञानरूपी वहाणमां बेसवानुं कहे छे, त्यां ते
आत्मार्थी जीव भेदज्ञानमां प्रमाद करतो नथी; अने
भेदज्ञाननो उपाय दर्शावनारा संतो प्रत्ये तेने महान
उपकारबुद्धि थाय छे के हे नाथ! अनंत जन्म–मरणना
समुद्रमांथी आपे अमने बहार काढया, भवसमुद्रमां डुबता
अमने आपे बचाव्या; संसारनो जेनो कोई बदलो नथी
एवो परम उपकार आपे अमारा उपर कर्यो.”
जीवादि छ द्रव्यो अने पांच अस्तिकायोनुं वर्णन करीने, उपसंहारमां तेना ज्ञाननुं फळ दर्शावतां आचार्यदेव कहे
छे के–
ए रीत प्रवचनसाररूप
‘पंचास्तिसंग्रह’ जाणीने
जे जीव छोडे रागद्वेष,
लहे सकळ दुःखमोक्षने. १०३
–ए प्रमाणे प्रवचनना सारभूत ‘पंचास्तिकायसंग्रह’ ने जाणीने जे रागद्वेषने छोडे छे, ते दुःखथी परिमुक्त
थाय छे.
प्रवचन एटले भगवान सर्वज्ञदेवनो उपदेश; तेमां काळ सहित पांच अस्तिकाय, एटले के जीव, पुद्गल, धर्म,
अधर्म आकाश अने काळ ए छ द्रव्यो कहेवामां आव्या छे; भगवान सर्वज्ञदेवना प्रवचनमां छ द्रव्योनो ज बधो
विस्तार छे, तेनाथी अन्य कांई कहेवामां नथी