Atmadharma magazine - Ank 179
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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भादरवोः २४८४ः ३ः
आवतुं. जड–चेतन, सुख–दुःख, पुण्य–पाप, बंध–मोक्ष वगेरे बधुं छ द्रव्यनो ज विस्तार छे. तेथी छ द्रव्यो ते प्रवचननो
सार छे. जे काळ सहित पंचास्तिकायने, एटले के छ द्रव्योने, न स्वीकारे ते भगवान सर्वज्ञदेवना प्रवचनने जाणतो
नथी.
छ द्रव्यो ते भगवान सर्वज्ञदेवना प्रवचननो सार छे; आवा प्रवचनना सारने जे जीव..जाणे छे ते दुःखथी
परिमुक्त थाय छे.–पण कई रीते जाणे छे?–के “अर्थतः अर्थीपणे” जाणे छे.
“अर्थतः अर्थी” एम कहीने आचार्यदेवे पात्र श्रोतानी खास लायकात बतावी छे. पात्र श्रोता केवो छे?
आत्मानो अर्थी छे, आत्माना हितनो जे गरजु छे, कोईपण रीते मारा आत्मानुं हित थाय–एम अंतरमां गरजवान
थयो छे, याचक थयो छे, एटले के हितने माटे विनयथी दीनपणे अर्पाई गयो छे, सेवक थयो छे, जेमनी पासेथी
आत्मप्राप्ति थाय एवा संतो प्रत्ये सेवकपणे वर्ते छे. अने शास्त्र जाणवामां तेने बीजो कोई हेतु नथी, मात्र
आत्महितनी प्राप्तिनो ज हेतु छे. शास्त्र भणीने हुं बीजाथी अधिक थाउं के मान–मोटाई पामुं, अथवा बीजाने
समजावुं–एवा आशयथी जे नथी भणतो, पण शास्त्र भणीने–छ द्रव्योनुं स्वरूप समजीने हुं मारा आत्मानुं हित केम
साधुं, ने मारो आत्मा दुःखथी केम छूटे,–एम आत्मानो शोधक थईने भणे छे.
आवो आत्मानो अर्थी जीव शास्त्रने कई रीते जाणे छे?–के ‘अर्थतः जाणे छे’ एटले के एकला शब्दथी नथी
जाणतो, पण तेना वाच्यभूत अर्थने अनुलक्षीने जाणे छे. भावश्रुतपूर्वक जाणे छे. एकला शाब्दिकज्ञानमां नथी
संतोषातो, पण अंतरमां शोधक थईने वाच्यभूत वस्तुने शोधे छे; सुखनो शोधक थईने पदार्थोनुं स्वरूप जाणे छे.
अहा! अर्थीपणे जाणवानुं कहीने आचार्यदेवे श्रोतानी केटली धगश बतावी छे! पोते अर्थी थईने–शोधक थईने
सांभळवा जाय छे; परंतु एम नथी के ज्यारे सहेजे सांभळवानो योग बनी जाय त्यारे सांभळी ल्ये ने पछी तेनी
दरकार न करे. आ तो शिष्य पोते अभिलाषी थईने–गरजु थईने, कोई पण रीते मने मारुं स्वरूप समजाय एम
अंदरमां झूरणा करीने, समजवानी गरजथी सांभळे छे.
सम्यक्त्वनी तैयारीवाळा जीवने पोतानुं कार्य साधवानो घणो उत्साह होय छे; ते जीव सम्यक्त्व माटे
उत्साहपूर्वक केवो प्रयत्न करे छे तेनुं वर्णन करतां ‘मोक्षमार्गप्रकाशक’ मां कहे छे के–जीवादि तत्त्वोने जाणवा माटे कोई
वखत पोते ज विचार करे छे, कोई वखत शास्त्र वांचे छे, कोई वखत सांभळे छे, कोई वखत अभ्यास करे छे तथा
कोई वखत प्रश्नोत्तर करे छे, इत्यादिरूप प्रवर्ते छे अने
तेने पोतानुं कार्य करवानो घणो हर्ष होवाथी अंतरंग
प्रीतिथी तेनुं समाधान करे छे. ए प्रमाणे साधन करतां ज्यां सुधी साचुं तत्त्वश्रद्धान न थाय–‘आ आम ज छे’
एवी प्रतीतिपूर्वक जीवादि तत्त्वोनुं स्वरूप पोताने न भासे, जेवी पर्यायमां (शरीरमां) अहंबुद्धि छे तेवी केवळ
आत्मामां अहंबुद्धि न थाय अने हित–अहितरूप पोताना भाव छे तेने न ओळखे त्यांसुधी ते जीव उद्यम कर्या ज करे
छे; एवो जीव थोडा ज काळमां सम्यक्त्वने पामे छे.
आत्मार्थी जीव उल्लसित वीर्यवान छे, तेना परिणाम उल्लासरूप होय छे, पोताना स्वभावने साधवा माटे तेनुं
वीर्य उत्साहित होय छे. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के ‘उल्लासित वीर्यवान परम तत्त्व उपासनानो मुख्य
अधिकारी छे.’
आत्मार्थी जीव पोताना आत्माना हित माटे उल्लासपूर्वक श्रवण–मनन करे छे. कूळप्रवृत्तिपूर्वक के सांभळवानो
सहेजे योग बनी जाय तो सांभळी ल्ये, पण समजवानो प्रयत्न करे तो तेने आत्मानी गरज नथी, माटे अहीं
आत्मानो अर्थी थईने शास्त्र जाणवानुं कह्युं छे.
‘काम एक आत्मार्थनुं
बीजो नहि मन रोग.’
जेना अंतरमां एक आत्मार्थ साधवानुं ज लक्ष छे, मारा अनादिना भवरोगनुं दुःख केम मटे? ए सिवाय
बीजो कोई रोग एटले के मानादिनी भावना जेना अंतरमां नथी;–आ रीते आत्मानो अर्थी