Atmadharma magazine - Ank 179
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ४ः आत्मधर्मः १७९
थईने जे शिष्य पंचास्तिकायसंग्रहने जाणे छे...ते सर्व दुःखथी परिमुक्त थाय छे.
जेम कोई माणस घणा दिवसनो क्षुधातूर होय, अने क्षुधा मटाडवा माटे याचकपणे–मान मूकीने भोजन मांगे,
ते पोताने माटे मांगे छे, बीजाने देवा माटे नहीं; मारुं भूखनुं दुःख मटे एवुं कांई भोजन मने आपो–एम याचक
थईने मांगे छे. एवा क्षुधातूरने भोजन मळे तो केवुं मीठुं लागे? सुको रोटलो मळे तो पण मीठो लागे..ने हर्षथी
पोतानी क्षुधा मटाडे.
तेम जे जीवने आत्मानी लगनी लागी छे–भूख लागी छे, अरे, अनादि काळथी संसारमां भ्रमण करतो
मारो आत्मा क्यांय सुख न पाम्यो, एकांत दुःख ज पाम्यो, हवे दुःखथी छूटीने मारो आत्मा सुख केम पामे–
एम सुखना उपायने झंखे छे, ते जीव ज्ञानी संत पासे जईने दीनपणे–भीखारीनी जेम–याचक थईने विनयथी
मांगे छे के प्रभो! मारा आत्माना सुखनो मार्ग मने समजावो, आ भवदुःखथी छूटवानो मार्ग मने बतावो.–
आम जे आत्मानो गरजु थईने आव्यो ने तेने आत्माना आनंदनी वात सांभळवा मळे तो केवी मीठी लागे!–
ए वखते ते बीजा लक्षमां न रोकाय, पण एक ज लक्षे आत्मानुं स्वरूप समजीने पोतानुं दुःख मटाडे. आत्मानो
खरेखरो अर्थी थईने जे सांभळे छे तेने श्रवण थतां ज अंतरमां परिणमी जाय छे. जेम खरी–कडकडती भूख
लागी होय तेने भोजन पेटमां पडतां ज परिणमी जाय छे, तेम जेने चैतन्यनी खरी अभिलाषा जागी छे तेने
वाणी काने पडतां ज आत्मामां ते परिणमी जाय छे.
जेम तृषातूरने शीतळ पाणी मळतां प्रेमपूर्वक पीए छे तेम आत्माना अर्थीने चैतन्यना शांतरसनुं पान
मळतां अत्यंत रुचिपूर्वक झीलीने अंतरमां परिणमावी दे छे. धोम तडकामां रेतीना रण वच्चे आवी पडयो होय,
तरसथी तरफडतां कंठगतप्राण थई गयो होय, पाणी–पाणीनो पुकार करतो होय, ने एवा टाणे शीतळ–मधुर
पाणी मळे तो केवी तलपथी पीए!! तेम विकारनी आकुळतारूपी धोम तडकामां, भवरणनी वच्चे भमतो जीव
सेकाई रह्यो छे, त्यां आत्मार्थी जीवने आत्मानी तृषा लागी छे–लगनी लागी छे, आत्मानी शांति माटे झंखे छे;
एवा जीवने संतोनी मधुर वाणीद्वारा चैतन्यना शांतरसनुं पान मळतां ज अंतरमां परिणमी जाय छे. कोरा घडा
उपर पाणीनुं टीपुं पडे, ने जेम चूसी ल्ये तेम आत्मार्थी जीव आत्माना हितनी वातने चूसी ल्ये छे–अंतरमां
परिणमावी दे छे.
आत्मार्थी जीवने पोतानुं आत्मस्वरूप समजवा माटे अंतरमां एटली गरज छे के बीजा लोको मान–अपमान
करे तेनी सामे जोतो नथी; ‘मारे तो मारा आत्माने रीझववो छे,–मारे जगतने नथी रीझववुं; जगत करतां आत्मा
वहालो लाग्यो छे, आत्मा करतां जगत वहालुं नथी, (जगत इष्ट नहि आत्माथी)’–आवी आत्मानी लगनीने लीधे
जगतना मान–अपमानने गणकारतो नथी. मारे समजीने मारा आत्मानुं हित साधवुं छे, एवुं ज लक्ष छे; पण हुं
समजीने बीजाथी अधिक थाउं, के हुं समजीने बीजाने समजावुं–एवी वृत्ति ऊठती नथी. जुओ, आ आत्मार्थी जीवनी
पात्रता!
जेम थाकेलाने विश्राम मळतां (अगर वाहन मळतां) हर्षित थाय, ने रोगथी पीडाता मनुष्यने वैद्य मळतां
उत्साहित थाय, तेम भवभ्रमण करी करीने थाकेला अने आत्मभ्रांतिना रोगथी पीडाता जीवने, ते थाक उतारनारी ने
रोग मटाडनारी चैतन्यस्वरूपनी वात काने पडतां ज उत्साहपूर्वक ते तेनुं सेवन करे छे. साचा सद्गुरु वैदे जे प्रकारे कह्युं
ते प्रकारे ते चैतन्यनुं सेवन करे छे; संत पासे दीन थईने भीखारीनी जेम ‘आत्मा’ मांगे छे के प्रभो! मने आत्मा
समजावो.
मधदरियामां डुबकां खातो होय तेने एक ज लक्ष छे के हुं दरियामां डुबतां केम बचुं? त्यां कोई सज्जन
आवीने तेने बचावे तो केवी उपकारबुद्धि थाय?–अहा! मने दरियामां डुबतो आणे बचाव्यो, मने जीवन
आप्युं–एम महाउपकार माने छे, तेम भवसमुद्रमां गोथां खाई खाईने थाकेला जीवने एक ज लक्ष छे के मारो
आत्मा आ संसारसमुद्रथी केम बचे! त्यां कोई ज्ञानी पुरुष तेने तरवानो उपाय बतावे तो ते प्रमाद वगर,
उल्लसता भावथी ते उपाय अंगीकार करे छे. जेम डूबता पुरुषने कोई वहाणमां बेसवानुं कहे तो शुं ते जराय
प्रमाद करे?–न ज करे; तेम
संसारथी तरवाना कामी आत्मार्थी जीवने
ज्ञानी संतो भेदज्ञानरूपी वहाणमां बेसवानुं