अरे जीव! तारा निर्भय चैतन्यपदने जाणीने तेमां निःशंकपणे एकाग्र था. परचीजो ने रागादि तो अपद छे–
अपद छे, आ शुद्ध चैतन्य ज तारुं स्वपद छे–स्वपद छे. धर्मी जाणे छे के जगतनी गमे तेवी प्रतिकूळता ते कांई
मने भयस्थान नथी. मारुं चैतन्यस्वरूप अभय छे. निशंकपणे चैतन्यमां हुं प्रवर्तुं छुं–तेमां मने कोई संयोगो
भय उपजाववा समर्थ नथी, मारा चैतन्यदुर्गमां परसंयोगोनो प्रवेश ज नथी, पछी भय कोनो? अज्ञानी बाह्य
संयोगमां शरण मानीने– निर्भयस्थान मानीने तेमां प्रवर्ते छे, पण ते तो खरेखर भयनुं स्थान छे, जेने
शरणभूत मान्या ते संयोगो एक क्षणमां खसी जशे...जे मातापिताने के पुत्रने शरण मान्या ते एक क्षणमां फू
थईने क्यांय ऊडी जशे...लक्ष्मी अने शरीर क्यांय चाल्या जशे...माटे तेमां क्यांय अभयस्थान नथी. जगतना
कोई पदार्थनो संयोग एवो ध्रुव नथी के जे शरणभूत थाय! अरे, संयोग तरफ वर्ततुं तारुं ज्ञान पण क्षणमां
पलटी जशे, तेमां पण तारुं शरण नथी. आत्मराम ज तने शरण छे, तेनी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां रमणता
कर! ते ज अभयस्थान छे.
ज्ञान अने दरशन छे तारुं रूप जो..
बहिरभावो ते स्पर्शे नहीं आत्मने,
खरेखरो ए ज्ञायक वीर गणाय जो..
प्रतापे थती जैनधर्म–प्रभावनानी विगतो आपवामां आवे छे...सांसारिक झंझटोमां
आ मासिक कदी पडतुं नथी...हजारो जिज्ञासुओ होंसे होंसे आ मासिकनुं वांचन करे
छे...ने तेमां आवेला पू. गुरुदेवना उपदेशद्वारा शांति अने धर्मनी प्रेरणा मेळवे छे..
करवाना छे; तेनी तथा मुंबई शहेरना पंचकल्याणक वगेरेनी भक्तिभरपूर माहिती
माटे आप ‘आत्मधर्म’ ना नवा वर्षना ग्राहक बनो अने आपना संबंधी जनोने
पण ग्राहक बनावो.